Monday, September 24, 2012

शह और मात का मुद्दा- विदेशी निवेश

केंद् सरकार ने जब मल्टी ब्रांड रिटेल के क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलने की बात की तो देश में तूफ़ान उठ खड़ा हुआ है। तृणमूल कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया तो सरकार पर संकट मंडराने लगा। इसी बीच सरकार ने विदेशी निवेश की अधिसूचना जारी कर दी। इसके मुताबिक, विदेशी कंपनियां सिर्फ उन शहरों में ही अपने स्टोर खोल सकेंगी जिनकी आबादी दस लाख या उससे ज्यादा है। 2011 के जनसंख्या आंकलन के मुताबिक पूरे देश के करीब 8000 शहरों में से सिर्फ 53 ही ऐसे शहर हैं जहां की आबादी दस लाख या उससे ज्यादा है। क्या है विदेशी निवेश और इसका देश में क्या असर होने जा रहा है, आंकलन करती अनिल दीक्षित की रिपोर्ट- क्या है प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सामान्य शब्दों में किसी एक देश की कंपनी का दूसरे देश में निवेश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई कहलाता है। ऐसे निवेश से निवेशकों को दूसरे देश की उस कंपनी के प्रबंधन में कुछ हिस्सा हासिल हो जाता है जिसमें उसका पैसा लगता है। आमतौर पर माना यह जाता है कि किसी निवेश को एफडीआई का दर्जा दिलाने के लिए कम-से-कम कंपनी में विदेशी निवेशक को 10 फीसदी शेयर खरीदना पड़ता है। इसके साथ उसे निवेश वाली कंपनी में मताधिकार भी हासिल करना पड़ता है। एफडीआई दो तरह के हो सकते हैं-इनवार्ड और आउटवार्ड। इनवार्ड एफडीआई में विदेशी निवेशक भारत में कंपनी शुरू कर यहां के बाजार में प्रवेश कर सकता है। इसके लिए वह किसी भारतीय कंपनी के साथ संयुक्त उद्यम बना सकता है या पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी यानी सब्सिडियरी शुरू कर सकता है। अगर वह ऐसा नहीं करना चाहता तो यहां इकाई का विदेशी कंपनी का दर्जा बरकरार रखते हुए भारत में संपर्क, परियोजना या शाखा कार्यालय खोल सकता है। आमतौर पर यह भी उम्मीद की जाती है कि एफडीआई निवेशक का दीर्घावधि निवेश होगा। इसमें उनका वित्त के अलावा दूसरी तरह का भी योगदान होगा। किसी विदेशी कंपनी द्वारा भारत स्थित किसी कंपनी में अपनी शाखा, प्रतिनिधि कार्यालय या सहायक कंपनी द्वारा निवेश करने को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) कहते हैं। कितना बड़ा है भारतीय रिटेल बाज़ार? अनुमानों के मुताबिक भारत का रीटेल या खुदरा बाज़ार 400 से 500 अरब डॉलर का है। अभी तक इस बाज़ार पर आधिपत्य असंगठित क्षेत्र का ही है। भारत के रिटेल क्षेत्र के सटीक आंकड़ों के उपलब्ध न होने के सबसे बड़े कारणों में से यह एक मुख्य कारण है। यह मुख्यतया दवा, संगीत, पुस्तकें, टीवी फ़्रिज जैसे उपभोक्ता उत्पाद, कपड़े, रत्न और गहने के अलावा खाद्य सामग्रियों को अलग-अलग बाजारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। लगभग हर बाज़ार में संगठित क्षेत्र की कंपनियाँ पैठ बनाने की कोशिश कर रही हैं। दवा के क्षेत्र में रेलिगेयर, अपोलो फ़ार्मेसीज़ और गार्डियन की तरह की कई श्रृंखलाएँ बाज़ार में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही हैं। इसी तरह से संगीत का बाज़ार भी पूरी तरह से असंगठित क्षेत्र के हाथों में हैं। इस बाज़ार की सबसे बड़ी समस्या नक़ल है। भिन्न-भिन्न बाज़ारों को एक छत के नीचे लाने की कोशिश कई भारतीय कंपनियों ने की है लेकिन अभी तक किसी ने बाज़ार का नक़्शा बदलने में सफलता नहीं पाई है। भारत में मल्टीब्रांड रिटेल भारत में मल्टीब्रांड रिटेल के क्षेत्र में पिछले कुछ सालों से निजी कंपनियां चल रही हैं। अभी तक के अनुमानों के मुताबिक क़रीब 90 फ़ीसदी बाज़ार पर छोटे व्यापारियों का कब्ज़ा है। भारतीय मल्टीब्रांड रिटेल में बड़े खिलाड़ी कई हैं। टाटा- बिरला जैसे समूहों के बड़े प्रयासों के बावजूद असंगठित क्षेत्र का कब्ज़ा बाज़ार पर बरक़रार है। पेंटालून रिटेल सबसे बड़े मल्टीब्रांड व्यापारियों में से एक है। बिग बाज़ार के नाम से चलने वाली विशाल दुकानों के साथ यह कंपनी संगठित बाज़ार में सबसे ऊपर है। फ़्यूचर समूह जो पेंटालून रिटेल का मालिक है, वह कपड़ों, जूतों सहित कई और बाज़ारों में भी मज़बूत खिलाड़ी है। इस समूह की देश भर में क़रीब 500 से ऊपर छोटी-बड़ी दुकानें हैं। दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल कंपनियों में से एक फ़्रांस की कारफ़ोर से फ़्यूचर समूह के तार जोड़कर देखे जाते हैं। इस क्षेत्र में दूसरा सबसे बड़ा समूह है रिलायंस रिटेल। मुकेश अंबानी समूह की यह कंपनी भारत में छोटे-बड़े क़रीब एक हज़ार स्टोर चलाती है। रिलायंस मार्ट से लेकर, रिलायंस फ़्रेश और रिलायंस फ़ुटप्रिंट की तरह की कई दुकाने इस समूह द्वारा चलाई जाती हैं। के रहेजा समूह की शॉपर्स स्टॉप, क्रॉसवर्ड, हायपर सिटी की नामों से कई तरह की रिटेल दुकानें चलती हैं. कुल मिलाकर टाटा, आदित्य बिरला समूह से लेकर आरपीजी, भारती और महिन्द्रा तक भारत के सभी बड़े औद्योगिक समूह रीटेल के क्षेत्र में किसी न किसी तरह से अपनी मौजूदगी रखते हैं। असंगठित खुदरा उद्योग भारत का संगठित खुदरा व्यापार फ़िलहाल बहुत छोटा है– कुल व्यापार का दस फ़ीसदी से भी कम वहीं नब्बे फ़ीसदी से ज़्यादा खुदरा उद्योग असंगठित है। ‘द इकॉनॉमिस्ट अख़बार’ के मुताबिक चीन का संगठित खुदरा व्यापार, कुल व्यापार का 20 फ़ीसदी और अमरीका का संगठित खुदरा व्यापार कुल व्यापार का 80 फ़ीसदी है। साथ ही ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि भारत में आने वाले वर्षों में आबादी का ज़्यादा हिस्सा युवा है यानि उपभोक्ता वर्ग। ज़ाहिर है भारत के खुदरा बाज़ार के नए अवसरों का फ़ायदा उठाने की टक्कर होगी तो कांटे की ही। यानि ऐसे ही छोटे व्यापारियों से बना. तो ख़रीदार का मन क्या इतनी जल्दी पाला बदल लेगा? देश के तमाम बड़े और मध्यम-वर्गीय शहरों में रिहायशी इलाकों के पास छोटी दुकानों में घी-तेल, दूध-ब्रेड, दाल-आटा, बिस्कुट-नमकीन, शैम्पू-टूथपेस्ट जैसी तमाम चीज़ें मिलती हैं. किराने की एक छोटी दुकान- काउंटर के उस पार ज़रूरी नहीं कि सामान करीने से लगा हो लेकिन अक़्सर जो नहीं भी दिख रहा होगा, माँगने पर मिल जाएगा सरकार का दावा और सच्चाई सरकार का दावा है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) से खुदरा क्षेत्र में एक करोड़ नई नौकरियां आएंगी। उपभोक्ताओं और किसानों को लाभ होगा। किसानों को अपने उत्पाद का बेहतर मूल्य मिलेगा और उन्हें अतिरिक्त रोजगार के अवसरों से भी लाभ होगा जिसके चलते उनके जीवनस्तर में सुधार होगा। केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अनुसार, यह सिर्फ मिथक है कि बहुब्रांड खुदरा में एफडीआई से रोजगार समाप्त हो जाएंगे। एक आकलन के मुताबिक भारत में खुदरा अर्थव्यवस्था करीब 400 अरब अमेरिका डॉलर का है। इसमें 1. 2 करोड़ खुदरा व्यापारी करीब 4 करोड़ लोगों को रोजगार दिए हुए हैं। वॉल-मार्ट का टर्नओवर 420 अरब अमेरिकी डॉलर का है लेकिन इस कंपनी ने सिर्फ 21 लाख लोगों को रोजगार दिया है। खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के विरोधियों का कहना है कि अगर वॉल-मार्ट जैसी कंपनी इतने कम लोगों के दम पर उतना ही कारोबार कर रही है, जितना की भारत का कुल खुदरा बाज़ार है तो उस कंपनी से क्या उम्मीद की जा सकती है। एफडीआई के विरोधी पूछते हैं कि क्या ऐसी कंपनी से 4-5 करोड़ लोगों को रोज़गार देने की उम्मीद की जा सकती है? अमेरिका में उलटबांसी केंद्र सरकार का दावा है कि एफडीआई भारत के कृषि क्षेत्र के लिए 'वरदान' साबित होगा। लेकिन कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक यह सच नहीं है। उनका कहना है कि खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के सबसे बड़े पैरोकार अमेरिका में भी खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए अच्छा साबित नहीं हुआ है। अमेरिका में फेडरल सरकार की मदद की वजह से वहां के किसान फायदे में रहते हैं। 2008 में आए फार्म बिल में अमेरिका ने अगले 5 सालों के लिए कृषि क्षेत्र के लिए 307 अरब अमेरिकी डॉलर का प्रावधान किया गया था। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर खुदरा में एफडीआई या बड़ी पूंजी लगाने से किसानों को बडा़ फायदा होता तो अमेरिकी सरकार को अपने किसानों को इतनी भारी भरकम सब्सिडी क्यों देनी पड़ती? पश्चिमी देशों में किसानों को कई तरह की सब्सिडी के बावजूद एक स्टडी में यह बात सामने आई है कि यूरोप में हर मिनट एक किसान खेती बाड़ी का काम छोड़ रहा है। सही प्रबंधन है इलाज यह सही है कि भारत में आर्थिक हालात बिगड़े हुए हैं, लेकिन उसका इलाज विदेशी निवेश नहीं, अर्थव्यवस्था का सही प्रबंधन है। हम देख रहे हैं कि देश का विदेशी व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2010-11 में विदेशी व्यापार घाटा 130 अरब डॉलर था, जबकि अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजी जाने वाली विदेशी मुद्रा और सॉफ्टवेयर बीपीओ निर्यात इत्यादि से प्राप्तियां कुल 86 अरब डॉलर की थीं। इस भुगतान शेष को विदेशी निवेश से पाटा गया। सरकार द्वारा विदेशी निवेश के लिए जो सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है, वह है हमारे बढ़ते भुगतान शेष को पाटने की मजबूरी। कच्चा तेल और कुछ अन्य प्रकार के आयात करना देश की मजबूरी हो सकती है। लेकिन वर्ष 2011-12 में व्यापार घाटे में अभूतपूर्व वृद्धि देखने में आई, जबकि हमारा व्यापार घाटा बढ़कर 190 अरब डॉलर तक पहुंच गया। इतना बड़ा व्यापार घाटा पाटने के लिए विदेशी निवेश भी अपर्याप्त रहा और इसका असर यह हुआ कि देश में विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव आ गया। इसका सीधा-सीधा असर रुपये के मूल्य पर पड़ा और रुपया फरवरी 2012 में 48.7 रुपये प्रति डॉलर से कमजोर होता हुआ जुलाई माह तक 57 रुपये प्रति डॉलर के आसपास पहुंच गया। रुपये के अवमूल्यन के कारण देश में कच्चे माल की कीमतें और ईंधन की कीमतें बढ़ने लगीं। उद्योग, जो पहले से ही ऊंची ब्याज दरों के कारण लागतों में वृद्धि का दंश झेल रहा था, को अब कच्चे माल और ईधन के लिए भी ऊंची कीमतें चुकानी पड़ रही हैं। औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर घटते-घटते ऋणात्मक तक पहुंच गयी और वर्ष 2011-12 की अंतिम तिमाही में यह 5.3 प्रतिशत पहुंच गई। औद्योगिक क्षेत्र न केवल बढ़ती लागतों के कारण प्रभावित हुआ, बल्कि देश में स्थायी उपभोक्ता वस्तुओं जैसे- कार, इलेक्ट्रानिक्स और यहां तक कि घरों की मांग भी घटने लगी। भारी महंगाई के चलते रिजर्व बैंक ब्याज दरों को घटाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। आर्थिक जगत में यह चिंता व्याप्त हो गई है कि कहीं भारत की आर्थिक संवृद्धि की गाथा में लंबा विघ्न न आ जाए। ऐसे में सरकार अपनी कमजोरियों और कुप्रबंधन को छुपाने के लिए सारा दोष राजनीतिक परिस्थितियों को दे रही है और खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश खोलने और नए विधेयकों को पारित करने को ही समाधान बता रही है। लेकिन अर्थव्यवस्था की दुर्दशा इन नई नीतियों के रुकने से नहीं है, बल्कि सरकार के बेहद चिंताजनक कुप्रबंधन के कारण है। ये हैं फायदे किसानों को फायदा देश में किसानों की हालत किसी से छुपी नहीं है। उनकी तंगहाली का आलम यह है कि पिछले कुछ सालों में हजारों किसानों ने खेती में घाटे के चलते आत्महत्या का रास्ता अपनाया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का तर्क है कि रिटेल में एफडीआई से किसानों को सीधा फायदा होगा। जानकार बताते हैं कि ब्राजील और अर्जेंटीना ने जब से रिटेल सेक्टर में एफडीआई की इजाजत दी है, तब से किसानों को मिलने वाले आर्थिक फायदे में 37 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। उपभोक्ता को सस्ते में मिलेगी चीजें एफडीआई के समर्थक दक्षिण अमेरिकी देशों-ब्राजील और अर्जेंटीना का उदाहरण देकर यह कहते हैं कि उन देशों में रिटेल में एफडीआई की इजाजत के बाद करीब सभी चीजों के दाम करीब 18 फीसदी गिरे हैं। बिचौलिए से छुटकारा बाज़ार में सबसे ज्‍यादा फायदा बिचौलिए उठाते हैं। न तो किसी भी माल का उत्पादन करने वाले किसान और न ही वस्तु के अंतिम खरीदार (ग्राहक) को ही इसमें कोई फायदा होता है। बिचौलिए बेहद सस्ती दरों पर किसानों से उनके उत्पाद लेकर ग्राहकों को दूनी या कई बार तीन गुनी कीमत पर बेचते हैं। एफडीआई के समर्थक जानकारों का दावा है कि एफडीआई के आने से बिचौलिए गायब हो जाएंगे, जिससे किसानों को पहले से कहीं अधिक दाम मिलेगा और ग्राहकों को भी पहले की तुलना में काफी सस्ती चीजें मिल जाएंगी। गांवों को सीधा फायदा एफडीआई के समर्थकों का दावा है कि विदेशी पूंजी आने से एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि इससे गांवों के विकास में विदेशी पूंजी लगेगी। कुछ जानकारों का दावा है कि भारत में खुदरा बाज़ार में उतरने के लिए किसी भी विदेशी निवेशक को 100 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश करना होगा। इस राशि में से 50 फीसदी यानी 100 अरब अमेरिकी डॉलर में से 50 अरब अमेरिकी डॉलर उन जगहों पर खर्च करना होगा, जहां से कंपनियां माल खरीदेंगी। ... और ये नुकसान दाम में कमी नहीं बडी़ खुदरा दुकानें बाज़ार पर धीरे-धीरे एकाधिकार बना लेती हैं। एकाधिकार के बाद यही कंपनियां मनमानी दरों पर अपने उत्पाद बेचती हैं। एफडीआई का विरोध कर रहे जानकारों का दावा है कि अफ्रीका और एशिया में कुछ सुपरमार्केट में वस्तुओं के दाम खुले बाज़ार से 20 से 30 फीसदी से ज़्यादा पाए गए। अनाज को सड़ने से नहीं बचाएंगी कंपनियां एफडीआई के समर्थकों का कहना है कि खुदरा बाज़ार में निवेश करने वाली विदेशी कंपनियां वैज्ञानिक ढंग से लाखों टन अनाज को सड़ने से बचाने के लिए पर्याप्त इंतजाम करेंगी। लेकिन खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के विरोधी पूछते हैं कि दुनिया के किस देश में ऐसी बड़ी कंपनियां किसानों के अनाज को सड़ने से बचाने के लिए भंडारण की सुविधा दे रही हैं? गौर करने वाली बात यह है कि सरकार ने भंडारण (स्टोरेज) के क्षेत्र में एफडीआई की इजाजत पहले ही दे रखी है। लेकिन अब तक इस क्षेत्र में कोई विदेशी निवेश नहीं हुआ है। नए तरह के बिचौलिए आएंगे सामने खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के समर्थकों का कहना है कि इससे बाजा़र में सबसे ज़्यादा फायदे में रहने वाले बिचौलिए गायब हो जाएंगे क्योंकि खुदरा की विदेशी दुकानें किसानों से उनके उत्पाद सीधे तौर पर खरीदेंगे और इससे किसानों को काफी फायदा होगा। लेकिन कृषि विशेषज्ञ डॉ. देविंदर शर्मा का कहना है कि यह धारणा गलत है। उन्होंने अमेरिका में हुए एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा है कि 20 वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका के किसानों को लागत निकालने के बाद करीब 70 फीसदी की कमाई होती थी। लेकिन 2005 में यह फायदा गिरकर 4 फीसदी पर आ गया। ऐसे में किसानों को कहां फायदा हो रहा है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि खुदरा की बड़ी दुकानें अपने साथ नए तरह के बिचौलिए लेकर आती हैं। एफडीआई के बाद क्वॉलिटी कंट्रोलर, स्टैंडर्डाइजर, सर्टिफिकेशन एजेंसी, प्रॉसेसर और पैकेजिंग कंसलटेंट के रूप में नए बिचौलिए सामने आएंगे। क्यों विरोध - लगता है इससे छोटे दुकानदारों का धंधा ठप हो जाएगा और किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य नहीं मिलेगा। - बड़ी विदेशी कंपनियां बाजार का विस्तार नहीं करेंगी बल्कि मौजूदा बाजार पर ही काबिज हो जाएंगी। ऐसे में खुदरा बाजार से जुड़े 4 करोड़ लोगों पर इसका असर पड़ेगा। -विदेशी कंपनियां अपने बाजार से ही सामान खरीदेंगी और ऐसे में घरेलू बाजार से नौकरी छिनेगी। -इस मसले पर भारत और चीन की तुलना गलत है। चीन विदेशी कंपनियों का सबसे बड़ा सप्लायर है और भारत में रिटेल में एफडीआई होने पर चीन का ही सामान यहां बिकेगा। -जिस सप्लाई चेन के बनने की बात सरकार खुद कर रही है वो काम भी उसी का है। अगर सरकार सप्लाई चेन दुरस्त कर दे तो किसानों को इसका फायदा बिना एफडीआई के ही मिलने लगेगा। समर्थन में तर्क -एफडीआई से अगले तीन साल में रिटेल सेक्टर में एक करोड़ नई नौकरियां मिलेंगी। -किसानों को बिचौलियों से मुक्ति मिलेगी और अपने सामान की सही कीमत भी। -कंज्यूमर को क्या फायदा– लोगों को कम दामों पर विश्व स्तर की चीजें उपलब्ध होंगी। -छोटे दुकानदारों को नुकसान या फायदा– छोटे दुकानदार को कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि बड़ी कंपनियों और छोटे दुकानदारों के कारोबार करने का तरीका अलग-अलग है। -विदेशी कंपनियां सप्लाई चेन सुधारेंगी तो खाद्य सामग्री का खराब होना थमेगा। -सामान कम खराब होगा तो इससे खाद्य महंगाई भी सुधरेगी। -विदेशी कंपनियों को कम से कम 30 फीसदी सामान भारतीय बाजार से ही लेना होगा। इससे देश में नई तकनीक आएगी। लोगों की आय बढ़ेगी और इसका फायदा औद्योगिक विकास दर को मिलेगा। - देश की बड़ी कंपनियों को पहले ही रिटेल में आने की इजाजत है। चीन हो या फिर इंडोनेशिया जहां भी रिटेल में एफडीआई को मंजूरी दी गई वहां एग्रो-प्रोसेसिंग इंडस्ट्री के दिन फिर गए। भारत में मौजूद बड़े खिलाड़ी वॉलमार्ट: वॉलमार्ट स्टोर एक अमेरिकी पब्लिक कारपोरेशन है। इसकी स्थापना १९६२ में सैम वाल्टन ने की थी। यह अमेरिका एवं मेक्सिको का सबसे बड़ा निज़ी नियोजक है। यह कंपनी भारत के भारती समूह के साथ मिलकर छह बड़ी दुकानें चलाती है। इन दुकानों में किसानों से सामान लेकर थोक विक्रेताओं को बेचा जाता है। वॉल-मार्ट का टर्नओवर 446 अरब अमेरिकी डॉलर का है। टेस्को: ब्रिटेन की सबसे बड़ी रीटेल कंपनी टेस्को भारत में टाटा समूह की रिटेल कंपनी ट्रेंट के साथ मिल कर काम करती है। मेट्रो: जर्मनी की रिटेल कंपनी मेट्रो एजी भारत में छह थोक दुकानें चलाती है। कारफोर: फ़्रांस की यह कंपनी दिल्ली में दो थोक दुकानें चला रही है।

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