Monday, September 24, 2012

तीसरे मोर्चे की संभावनाएं

सवाल उठ रहे हैं, क्या देश में एक बार फिर तीसरे मोर्चे के गठन की सुगबुगाहट शुरू हो गई है? क्या सरकार की गिरती साख तथा विपक्ष में पड़ती दरार के कारण मुलायम की तीसरे मोर्चे को जिंदा करने की कोशिशें परवान चढ़ेंगी? यहां यह भी देखना होगा कि यदि तीसरा मोर्चा अस्तित्व में आता है, तो उसमें कौन-कौन-से दल शामिल होंगे, उनकी विचारधाराओं के बीच किस प्रकार सामंजस्य बैठेगा, फिर उसमें मौजूद क्षेत्रीय दल किस नीति के तहत जनता के पास वोट मांगने जाएंगे? यहां एक सवाल और उठता है कि क्या तीसरे मोर्चे का संभावित गठन राजनीति में चौथे मोर्चे के गठन का भी मार्ग प्रशस्त नहीं करेगा? दरअसल, क्षेत्रीय नेताओं में इतने मतभेद हैं कि उनका एक मंच पर आना असंभव लगता है और यदि वे एक साथ आ भी गए, तो साथ-साथ रहेंगे कितने दिन? बहरहाल, मुलायम सिंह यादव इन दिनों जो राजनीति कर रहे हैं, उससे साफ है कि वे जल्द से जल्द आम चुनाव चाहते हैं। भाजपा तो इसी प्रयास के तहत हमलावर की मुद्रा में है। प्रस्तुत है देश में मध्यावधि चुनाव और तीसरे मोर्चे की संभावनाओं पर रिपोर्ट मुलायम सिंह ने रचा ताना-बाना अगला लोकसभा चुनाव भले ही दूर हो, लेकिन 2014 से बड़ी उम्मीद लगाए सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने संभावित 'तीसरा मोर्चा' का ताना-बाना अभी से बुनना शुरू कर दिया है। दिलचस्प पहलू यह भी है कि मुलायम की इस रणनीति से कांग्रेस भी असहज नहीं महसूस कर रही है। कुछ माह पहले तक देश में मध्यावधि चुनाव की संभावना जताने वाली सपा अब 2014 में ही चुनाव मानकर चल रही है। ऐसे में उसे तीसरे मोर्चे की जमीन तैयार करने के लिए यह मौका सबसे मुफीद लग रहा है। एक तरफ वह 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में अभी से अपने प्रत्याशी तय कर रही है तो दूसरी तरफ समान विचारधारा वाले दलों की एकजुटता के जरिए केंद्रीय राजनीति में अपनी अहमियत भी साबित कर रही है। रणनीति के आधार स्तंभ मुलायम सिंह की रणनीति क्षेत्रीय दलों पर टिकी है। उन्हें लगता है कि आगामी लोकसभा चुनावों में संसद में बहुमत चूंकि किसी के पास नहीं होगा इसलिये ज्यादा सांसदों वाले दलों की भूमिका प्रभावी हो जाएगी। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने उनमें उत्साह का संचार किया है। देश के इस सबसे बड़े राज्य में लोकसभा की 80 सीटें हैं। मुलायम महसूस कर रहे हैं कि जरूरत पड़ने पर वामपंथी दलों की मदद भी ली जा सकती है। शुरुआत फिलहाल, कोयला ब्लॉक आवंटन में गड़बड़ी के खिलाफ समान सोच वाले दलों की एकजुटता से हुई है,लेकिन यह यहीं नहीं रुकेगा। दिलचस्प पहलू यह भी है कि मुलायम की इस रणनीति से कांग्रेस भी असहज नहीं महसूस कर रही है। वामदलों, गैर कांग्रेस व गैर भाजपा कुछ दलों को सपा के साथ विश्वास का संकट हो सकता है, फिर भी मुद्दों के आधार पर वे मौजूदा दोस्ती को जरूरी मान रहे हैं। इन दलों की उसी सोच का नतीजा है कि सपा, माकपा, भाकपा, तेलगू देशम पार्टी ने बैठक करके कोयला ब्लॉक आवंटन में गड़बड़ी की न्यायिक जांच और संसद का गतिरोध दूर करने के लिए हाथ मिला लिया। खास बात यह है कि दोस्ती का यह सिलसिला आगे भी जारी रखने पर ये दल राजी हो गए हैं, जबकि, दूसरे दलों को जोड़ने की भी संभावनाएं तलाशी जाने लगी हैं। यह पूछने पर कि इस नए गठजोड़ की आगे की रणनीति क्या है? मुलायम से कहा, 'यह शुरुआत है। अब हम आगे भी बैठकें करके रणनीति बनाते रहेंगे'। वामपंथीः सरकार में रहकर भी विपक्षी तीसरा मोर्चा पिछले तीन दशक में कई बार चर्चा में आया, सत्ता में भी आया और विलुप्त हो गया। केंद्र की सरकार ने वामपंथियों के शामिल होने का देश भारी नुकसान उठा रहा है। वामपंथियों की टोली सरकार में रहकर ही विपक्ष की भाषा बोलती है और मनमाफिक निर्णय न होने से तीसरे मोर्चे की बात उछालने लगती है। देश में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव के कारण पूर्णबहुमत की सरकारों का गठन मुश्किल होता जा रहा है। अब तो यह लगने लगा है कि जब तीसरे मोर्चे का शोर सुनाई दे तो समझिए कि कोई सरकार अपने को परेशानी में समझकर अपनी सीमाएं सुरक्षित करने की कोशिश कर रही है। सब जानते हैं कि देश के राजनीतिक समीकरण ऐसे हैं कि कोई भी राजनीतिक दल केंद्र सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में नहीं पड़ सकता। वामपंथी चाहे जितना चिल्लाएं। वे जानते हैं कि कांग्रेस को अस्थिर करने का मतलब देश में भारतीय जनता पार्टी या प्रदेशों में शिवसेना जैसी सरकारों का मार्ग प्रशस्त करना है। जो लोग तीसरे मोर्चे के लिए बहुत उतावले हैं खुद उन्हें भविष्य में अपने बहुमत का पता नहीं है। कोई उनसे पूछे कि क्या वे स्वयं अपनी सरकारों का कार्यकाल पूरा कर सके? मोर्चे की बात तो बहुत दूर की है। तीसरे मोर्चे की पहल अभी तो सारे वामपंथी नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इस पहल में छीछालेदर के अलावा कोई दम नहीं है। बड़ा सवाल, कौन करेगा नेतृत्व भारतीय राजनीति का इतिहास रहा है जिसमें सत्ता हमेशा ही विचारधारा पर भारी पड़ती है। तीसरा मोर्चा बनाना कोई कठिन काम नहीं है लेकिन वह तब तक धरातल पर नहीं उतर सकता जब तक कि दलों की एक राय ना बने। बेशक, कुछ क्षेत्रीय दलों ने चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया है। साथ ही जनता का जनादेश भी उन्हें मिला है। अब सवाल यह है की विधानसभा चुनावों का प्रदर्शन लोकसभा चुनावों में दोहराना कैसे मुमकिन होगा। चलिये मान लेते है कि घटा-जोड़ कर कुछ क्षेत्रीय दल एक हो जाते है और हर आम चुनावों की तरह आगामी लोक सभा चुनावों में भी तीसरे या चौथे मोर्चे का गठन कर लेते है। लेकिन फिर वही समस्या सामने पेश आएगी की सत्ता मिलने पर उसकी बागडौर कौन संभाले। सच्चाई तो यह है की तीसरा मोर्चा कभी स्थिर हो ही नहीं सकता, और राजनीति में जो स्थिर नहीं होता, उसे जल्दी ही सत्ता से बेदखल करने में देर नहीं लगती। कई दलों का प्रभुत्व प्रभावशाली नेताओं के हाथ में है लेकिन उनकी प्रासंगिकता तब तक नहीं है जब तक किसी बड़े राजनीतिक दल से उनका गठबंधन न हो। तीसरे मोर्चे का इतिहास इतिहास के पन्नों को उलट कर देखें तो अस्सी के दशक के आसपास लोकदल के चरण सिंह का उत्तर प्रदेश के जाट प्रभुत्व वाले ग्रामीण इलाके में जबर्दस्त सिक्का चलता था। वही दूसरी तरफ भाजपा उत्तर भारत के शहरी इलाकों में धीरे धीरे लोकप्रिय पार्टी बन रही थी। लोकदल और भाजपा का किसी भी प्रकार का चुनावी गठबंधन काँग्रेस (आई) को भारत की हिन्दी बेल्ट में नुकसान पहुंचाने में लगा हुआ था। ममता, पवार और नीतीश भी हो सकते हैं बड़े खिलाड़ी तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी चीफ शरद पवार भी खेल के प्रमुख खिलाड़ी हो सकते हैं। दोनों पुराने कांग्रेसी हैं लेकिन इन्होंने समय रहते जान लिया था कि काँग्रेस से जुड़े रहने से इनकी राजनीतिक हसरते कभी पूरी नहीं होंगी। आगे चलकर राहें तो जुदा हो गयी लेकिन दिल अभी भी काँग्रेस से ही लगा हुआ है। दोनों को लगता है कि तीसरे मोर्चे के फ़ेल होने पर उनके राजनीतिक जीवन का अंत भी हो सकता है इसलिये बेहतर है की जरूरत के हिसाब से अपने को ढाल लिया जाए। अब जब दोनों ने कांग्रेस से दिल लगाकर अपनी छवि केन्द्रीय स्तर की बना ली है तो अब अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास कराते रहते है। उधर जनता दल यूनाईटेड के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए इस समय धर्मनिरपेक्षता से बड़ा कोई मुद्दा ही नहीं बचा है। भाजपा से जुड़कर नीतीश कुमार ने बिहार में अपनी अच्छी पकड़ और दिल्ली तक अपनी पहचान भी बना ली है, लेकिन नीतीश को अच्छी तरह से मालूम है कि भाजपा की राष्ट्रीय स्तर की छवि ही नीतीश को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक ले जाने में मदद कर सकती है। इन पर टिकी होंगी नजरें समाजवादी पार्टीः आगामी लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी यदि 40 से अधिक सीटें लाने में कामयाब होती है, तो सरकार का गठन उनके बिना नहीं होगा और यदि उत्तर प्रदेश के लिहाज से देखें, तो उनकी पार्टी इस वक्त 40 सीटें निकालने की स्थिति में तो है ही। सपा के वोटों का आधार मुस्लिम के साथ ही पिछड़ों का वोट है। प्रदेश में सवर्ण मतों की भूमिका भी अहम हो सकती है। बहुजन समाज पार्टीः उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी अच्छा दम-खम रखती है। विधानसभा में सत्ता से बाहर हुई यह पार्टी इस समय लोकसभा चुनावों की तैयारी में पूरे दम से जुटी है। पार्टी का अपना वोट बैंक हैं, दलितों के साथ यदि मुस्लिम वोट वह खींच लेती है तो तस्वीर का रुख पलट सकता है। बीजू जनता दलः ओडिशा में लोकसभा की 21 सीटें हैं। नवीन पटनायक का बीजू जनता दल हालांकि यहां प्रमुख खिलाड़ी नहीं है लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का घटक दल रहते हुए उसने यहां बड़ी हैसियत हासिल कर ली है। तृणमूल कांग्रेसः पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ यह पार्टी 42 सीटों पर अपना प्रभाव साबित कर सकती है हालांकि वहां के हालात थोड़े उसके प्रतिकूल हुए हैं और वामपंथी गठबंधन का समर्थन बढ़ा है। द्रमुक-अन्नाद्रमुकः तमिलनाडु में प्रभावी दोनों दलों के बीच 39 सीटों पर संघर्ष है। द्रमुक कांग्रेस के खेमे में है और अन्नाद्रमुक तटस्थ। लोकसभा चुनावों के बाद राज्य के चुनावी सूरमा रंग दिखा सकते हैं। शिवसेनाः महाराष्ट्र की प्रमुख राजनीतिक पार्टी शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी दमदार राजनीतिक पार्टियां हैं। भाजपा की करीबी है शिवसेना जबकि राज ठाकरे ने अभी किसी दल से नजदीकी दिखाई नहीं है। महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं। चुनावों के बाद जम्मू-कश्मीर में सत्तासीन नेशनल कांफ्रेंस, महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा पर भी तीसरे मोर्चे के लिए प्रयासरत नेताओं की नजरें जा सकती हैं। सर्वेक्षण- एनडीए आगे, यूपीए पीछे एनडीटीवी ने पहला चुनावी सर्वेक्षण किया है। उसका निष्कर्ष है कि मौजूदा हालात में यदि मध्यावधि चुनाव हो गए तो कांग्रेस को खासा नुकसान होगा और उसकी सीटें 206 से घटकर 127 पर पहुंच जाएंगी। उसके सहयोगियों की सीटें 58 रहने का अनुमान है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सबसे बड़ी ताकत बनकर उभर सकता है। उसकी सीटें 116 से बढ़कर 207 होने का अनुमान है। इसके साथ ही भाजपा के सहयोगियों की संख्या भी दोगुनी हो जाएगी। अन्य पार्टियों की सीट 117 से बढ़कर 151 हो जाएंगी और समाजवादी पार्टी चीफ मुलायम सिंह अपनी सीटें 23 से 33 होने के बाद किंगमेकर की भूमिका निभा सकेंगे। यह सर्वेक्षण चुनाव बाद क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ने का संकेत दे रहा है।

शह और मात का मुद्दा- विदेशी निवेश

केंद् सरकार ने जब मल्टी ब्रांड रिटेल के क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलने की बात की तो देश में तूफ़ान उठ खड़ा हुआ है। तृणमूल कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया तो सरकार पर संकट मंडराने लगा। इसी बीच सरकार ने विदेशी निवेश की अधिसूचना जारी कर दी। इसके मुताबिक, विदेशी कंपनियां सिर्फ उन शहरों में ही अपने स्टोर खोल सकेंगी जिनकी आबादी दस लाख या उससे ज्यादा है। 2011 के जनसंख्या आंकलन के मुताबिक पूरे देश के करीब 8000 शहरों में से सिर्फ 53 ही ऐसे शहर हैं जहां की आबादी दस लाख या उससे ज्यादा है। क्या है विदेशी निवेश और इसका देश में क्या असर होने जा रहा है, आंकलन करती अनिल दीक्षित की रिपोर्ट- क्या है प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सामान्य शब्दों में किसी एक देश की कंपनी का दूसरे देश में निवेश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई कहलाता है। ऐसे निवेश से निवेशकों को दूसरे देश की उस कंपनी के प्रबंधन में कुछ हिस्सा हासिल हो जाता है जिसमें उसका पैसा लगता है। आमतौर पर माना यह जाता है कि किसी निवेश को एफडीआई का दर्जा दिलाने के लिए कम-से-कम कंपनी में विदेशी निवेशक को 10 फीसदी शेयर खरीदना पड़ता है। इसके साथ उसे निवेश वाली कंपनी में मताधिकार भी हासिल करना पड़ता है। एफडीआई दो तरह के हो सकते हैं-इनवार्ड और आउटवार्ड। इनवार्ड एफडीआई में विदेशी निवेशक भारत में कंपनी शुरू कर यहां के बाजार में प्रवेश कर सकता है। इसके लिए वह किसी भारतीय कंपनी के साथ संयुक्त उद्यम बना सकता है या पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी यानी सब्सिडियरी शुरू कर सकता है। अगर वह ऐसा नहीं करना चाहता तो यहां इकाई का विदेशी कंपनी का दर्जा बरकरार रखते हुए भारत में संपर्क, परियोजना या शाखा कार्यालय खोल सकता है। आमतौर पर यह भी उम्मीद की जाती है कि एफडीआई निवेशक का दीर्घावधि निवेश होगा। इसमें उनका वित्त के अलावा दूसरी तरह का भी योगदान होगा। किसी विदेशी कंपनी द्वारा भारत स्थित किसी कंपनी में अपनी शाखा, प्रतिनिधि कार्यालय या सहायक कंपनी द्वारा निवेश करने को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) कहते हैं। कितना बड़ा है भारतीय रिटेल बाज़ार? अनुमानों के मुताबिक भारत का रीटेल या खुदरा बाज़ार 400 से 500 अरब डॉलर का है। अभी तक इस बाज़ार पर आधिपत्य असंगठित क्षेत्र का ही है। भारत के रिटेल क्षेत्र के सटीक आंकड़ों के उपलब्ध न होने के सबसे बड़े कारणों में से यह एक मुख्य कारण है। यह मुख्यतया दवा, संगीत, पुस्तकें, टीवी फ़्रिज जैसे उपभोक्ता उत्पाद, कपड़े, रत्न और गहने के अलावा खाद्य सामग्रियों को अलग-अलग बाजारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। लगभग हर बाज़ार में संगठित क्षेत्र की कंपनियाँ पैठ बनाने की कोशिश कर रही हैं। दवा के क्षेत्र में रेलिगेयर, अपोलो फ़ार्मेसीज़ और गार्डियन की तरह की कई श्रृंखलाएँ बाज़ार में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही हैं। इसी तरह से संगीत का बाज़ार भी पूरी तरह से असंगठित क्षेत्र के हाथों में हैं। इस बाज़ार की सबसे बड़ी समस्या नक़ल है। भिन्न-भिन्न बाज़ारों को एक छत के नीचे लाने की कोशिश कई भारतीय कंपनियों ने की है लेकिन अभी तक किसी ने बाज़ार का नक़्शा बदलने में सफलता नहीं पाई है। भारत में मल्टीब्रांड रिटेल भारत में मल्टीब्रांड रिटेल के क्षेत्र में पिछले कुछ सालों से निजी कंपनियां चल रही हैं। अभी तक के अनुमानों के मुताबिक क़रीब 90 फ़ीसदी बाज़ार पर छोटे व्यापारियों का कब्ज़ा है। भारतीय मल्टीब्रांड रिटेल में बड़े खिलाड़ी कई हैं। टाटा- बिरला जैसे समूहों के बड़े प्रयासों के बावजूद असंगठित क्षेत्र का कब्ज़ा बाज़ार पर बरक़रार है। पेंटालून रिटेल सबसे बड़े मल्टीब्रांड व्यापारियों में से एक है। बिग बाज़ार के नाम से चलने वाली विशाल दुकानों के साथ यह कंपनी संगठित बाज़ार में सबसे ऊपर है। फ़्यूचर समूह जो पेंटालून रिटेल का मालिक है, वह कपड़ों, जूतों सहित कई और बाज़ारों में भी मज़बूत खिलाड़ी है। इस समूह की देश भर में क़रीब 500 से ऊपर छोटी-बड़ी दुकानें हैं। दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल कंपनियों में से एक फ़्रांस की कारफ़ोर से फ़्यूचर समूह के तार जोड़कर देखे जाते हैं। इस क्षेत्र में दूसरा सबसे बड़ा समूह है रिलायंस रिटेल। मुकेश अंबानी समूह की यह कंपनी भारत में छोटे-बड़े क़रीब एक हज़ार स्टोर चलाती है। रिलायंस मार्ट से लेकर, रिलायंस फ़्रेश और रिलायंस फ़ुटप्रिंट की तरह की कई दुकाने इस समूह द्वारा चलाई जाती हैं। के रहेजा समूह की शॉपर्स स्टॉप, क्रॉसवर्ड, हायपर सिटी की नामों से कई तरह की रिटेल दुकानें चलती हैं. कुल मिलाकर टाटा, आदित्य बिरला समूह से लेकर आरपीजी, भारती और महिन्द्रा तक भारत के सभी बड़े औद्योगिक समूह रीटेल के क्षेत्र में किसी न किसी तरह से अपनी मौजूदगी रखते हैं। असंगठित खुदरा उद्योग भारत का संगठित खुदरा व्यापार फ़िलहाल बहुत छोटा है– कुल व्यापार का दस फ़ीसदी से भी कम वहीं नब्बे फ़ीसदी से ज़्यादा खुदरा उद्योग असंगठित है। ‘द इकॉनॉमिस्ट अख़बार’ के मुताबिक चीन का संगठित खुदरा व्यापार, कुल व्यापार का 20 फ़ीसदी और अमरीका का संगठित खुदरा व्यापार कुल व्यापार का 80 फ़ीसदी है। साथ ही ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि भारत में आने वाले वर्षों में आबादी का ज़्यादा हिस्सा युवा है यानि उपभोक्ता वर्ग। ज़ाहिर है भारत के खुदरा बाज़ार के नए अवसरों का फ़ायदा उठाने की टक्कर होगी तो कांटे की ही। यानि ऐसे ही छोटे व्यापारियों से बना. तो ख़रीदार का मन क्या इतनी जल्दी पाला बदल लेगा? देश के तमाम बड़े और मध्यम-वर्गीय शहरों में रिहायशी इलाकों के पास छोटी दुकानों में घी-तेल, दूध-ब्रेड, दाल-आटा, बिस्कुट-नमकीन, शैम्पू-टूथपेस्ट जैसी तमाम चीज़ें मिलती हैं. किराने की एक छोटी दुकान- काउंटर के उस पार ज़रूरी नहीं कि सामान करीने से लगा हो लेकिन अक़्सर जो नहीं भी दिख रहा होगा, माँगने पर मिल जाएगा सरकार का दावा और सच्चाई सरकार का दावा है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) से खुदरा क्षेत्र में एक करोड़ नई नौकरियां आएंगी। उपभोक्ताओं और किसानों को लाभ होगा। किसानों को अपने उत्पाद का बेहतर मूल्य मिलेगा और उन्हें अतिरिक्त रोजगार के अवसरों से भी लाभ होगा जिसके चलते उनके जीवनस्तर में सुधार होगा। केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अनुसार, यह सिर्फ मिथक है कि बहुब्रांड खुदरा में एफडीआई से रोजगार समाप्त हो जाएंगे। एक आकलन के मुताबिक भारत में खुदरा अर्थव्यवस्था करीब 400 अरब अमेरिका डॉलर का है। इसमें 1. 2 करोड़ खुदरा व्यापारी करीब 4 करोड़ लोगों को रोजगार दिए हुए हैं। वॉल-मार्ट का टर्नओवर 420 अरब अमेरिकी डॉलर का है लेकिन इस कंपनी ने सिर्फ 21 लाख लोगों को रोजगार दिया है। खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के विरोधियों का कहना है कि अगर वॉल-मार्ट जैसी कंपनी इतने कम लोगों के दम पर उतना ही कारोबार कर रही है, जितना की भारत का कुल खुदरा बाज़ार है तो उस कंपनी से क्या उम्मीद की जा सकती है। एफडीआई के विरोधी पूछते हैं कि क्या ऐसी कंपनी से 4-5 करोड़ लोगों को रोज़गार देने की उम्मीद की जा सकती है? अमेरिका में उलटबांसी केंद्र सरकार का दावा है कि एफडीआई भारत के कृषि क्षेत्र के लिए 'वरदान' साबित होगा। लेकिन कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक यह सच नहीं है। उनका कहना है कि खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के सबसे बड़े पैरोकार अमेरिका में भी खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए अच्छा साबित नहीं हुआ है। अमेरिका में फेडरल सरकार की मदद की वजह से वहां के किसान फायदे में रहते हैं। 2008 में आए फार्म बिल में अमेरिका ने अगले 5 सालों के लिए कृषि क्षेत्र के लिए 307 अरब अमेरिकी डॉलर का प्रावधान किया गया था। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर खुदरा में एफडीआई या बड़ी पूंजी लगाने से किसानों को बडा़ फायदा होता तो अमेरिकी सरकार को अपने किसानों को इतनी भारी भरकम सब्सिडी क्यों देनी पड़ती? पश्चिमी देशों में किसानों को कई तरह की सब्सिडी के बावजूद एक स्टडी में यह बात सामने आई है कि यूरोप में हर मिनट एक किसान खेती बाड़ी का काम छोड़ रहा है। सही प्रबंधन है इलाज यह सही है कि भारत में आर्थिक हालात बिगड़े हुए हैं, लेकिन उसका इलाज विदेशी निवेश नहीं, अर्थव्यवस्था का सही प्रबंधन है। हम देख रहे हैं कि देश का विदेशी व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2010-11 में विदेशी व्यापार घाटा 130 अरब डॉलर था, जबकि अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजी जाने वाली विदेशी मुद्रा और सॉफ्टवेयर बीपीओ निर्यात इत्यादि से प्राप्तियां कुल 86 अरब डॉलर की थीं। इस भुगतान शेष को विदेशी निवेश से पाटा गया। सरकार द्वारा विदेशी निवेश के लिए जो सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है, वह है हमारे बढ़ते भुगतान शेष को पाटने की मजबूरी। कच्चा तेल और कुछ अन्य प्रकार के आयात करना देश की मजबूरी हो सकती है। लेकिन वर्ष 2011-12 में व्यापार घाटे में अभूतपूर्व वृद्धि देखने में आई, जबकि हमारा व्यापार घाटा बढ़कर 190 अरब डॉलर तक पहुंच गया। इतना बड़ा व्यापार घाटा पाटने के लिए विदेशी निवेश भी अपर्याप्त रहा और इसका असर यह हुआ कि देश में विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव आ गया। इसका सीधा-सीधा असर रुपये के मूल्य पर पड़ा और रुपया फरवरी 2012 में 48.7 रुपये प्रति डॉलर से कमजोर होता हुआ जुलाई माह तक 57 रुपये प्रति डॉलर के आसपास पहुंच गया। रुपये के अवमूल्यन के कारण देश में कच्चे माल की कीमतें और ईंधन की कीमतें बढ़ने लगीं। उद्योग, जो पहले से ही ऊंची ब्याज दरों के कारण लागतों में वृद्धि का दंश झेल रहा था, को अब कच्चे माल और ईधन के लिए भी ऊंची कीमतें चुकानी पड़ रही हैं। औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर घटते-घटते ऋणात्मक तक पहुंच गयी और वर्ष 2011-12 की अंतिम तिमाही में यह 5.3 प्रतिशत पहुंच गई। औद्योगिक क्षेत्र न केवल बढ़ती लागतों के कारण प्रभावित हुआ, बल्कि देश में स्थायी उपभोक्ता वस्तुओं जैसे- कार, इलेक्ट्रानिक्स और यहां तक कि घरों की मांग भी घटने लगी। भारी महंगाई के चलते रिजर्व बैंक ब्याज दरों को घटाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। आर्थिक जगत में यह चिंता व्याप्त हो गई है कि कहीं भारत की आर्थिक संवृद्धि की गाथा में लंबा विघ्न न आ जाए। ऐसे में सरकार अपनी कमजोरियों और कुप्रबंधन को छुपाने के लिए सारा दोष राजनीतिक परिस्थितियों को दे रही है और खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश खोलने और नए विधेयकों को पारित करने को ही समाधान बता रही है। लेकिन अर्थव्यवस्था की दुर्दशा इन नई नीतियों के रुकने से नहीं है, बल्कि सरकार के बेहद चिंताजनक कुप्रबंधन के कारण है। ये हैं फायदे किसानों को फायदा देश में किसानों की हालत किसी से छुपी नहीं है। उनकी तंगहाली का आलम यह है कि पिछले कुछ सालों में हजारों किसानों ने खेती में घाटे के चलते आत्महत्या का रास्ता अपनाया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का तर्क है कि रिटेल में एफडीआई से किसानों को सीधा फायदा होगा। जानकार बताते हैं कि ब्राजील और अर्जेंटीना ने जब से रिटेल सेक्टर में एफडीआई की इजाजत दी है, तब से किसानों को मिलने वाले आर्थिक फायदे में 37 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। उपभोक्ता को सस्ते में मिलेगी चीजें एफडीआई के समर्थक दक्षिण अमेरिकी देशों-ब्राजील और अर्जेंटीना का उदाहरण देकर यह कहते हैं कि उन देशों में रिटेल में एफडीआई की इजाजत के बाद करीब सभी चीजों के दाम करीब 18 फीसदी गिरे हैं। बिचौलिए से छुटकारा बाज़ार में सबसे ज्‍यादा फायदा बिचौलिए उठाते हैं। न तो किसी भी माल का उत्पादन करने वाले किसान और न ही वस्तु के अंतिम खरीदार (ग्राहक) को ही इसमें कोई फायदा होता है। बिचौलिए बेहद सस्ती दरों पर किसानों से उनके उत्पाद लेकर ग्राहकों को दूनी या कई बार तीन गुनी कीमत पर बेचते हैं। एफडीआई के समर्थक जानकारों का दावा है कि एफडीआई के आने से बिचौलिए गायब हो जाएंगे, जिससे किसानों को पहले से कहीं अधिक दाम मिलेगा और ग्राहकों को भी पहले की तुलना में काफी सस्ती चीजें मिल जाएंगी। गांवों को सीधा फायदा एफडीआई के समर्थकों का दावा है कि विदेशी पूंजी आने से एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि इससे गांवों के विकास में विदेशी पूंजी लगेगी। कुछ जानकारों का दावा है कि भारत में खुदरा बाज़ार में उतरने के लिए किसी भी विदेशी निवेशक को 100 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश करना होगा। इस राशि में से 50 फीसदी यानी 100 अरब अमेरिकी डॉलर में से 50 अरब अमेरिकी डॉलर उन जगहों पर खर्च करना होगा, जहां से कंपनियां माल खरीदेंगी। ... और ये नुकसान दाम में कमी नहीं बडी़ खुदरा दुकानें बाज़ार पर धीरे-धीरे एकाधिकार बना लेती हैं। एकाधिकार के बाद यही कंपनियां मनमानी दरों पर अपने उत्पाद बेचती हैं। एफडीआई का विरोध कर रहे जानकारों का दावा है कि अफ्रीका और एशिया में कुछ सुपरमार्केट में वस्तुओं के दाम खुले बाज़ार से 20 से 30 फीसदी से ज़्यादा पाए गए। अनाज को सड़ने से नहीं बचाएंगी कंपनियां एफडीआई के समर्थकों का कहना है कि खुदरा बाज़ार में निवेश करने वाली विदेशी कंपनियां वैज्ञानिक ढंग से लाखों टन अनाज को सड़ने से बचाने के लिए पर्याप्त इंतजाम करेंगी। लेकिन खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के विरोधी पूछते हैं कि दुनिया के किस देश में ऐसी बड़ी कंपनियां किसानों के अनाज को सड़ने से बचाने के लिए भंडारण की सुविधा दे रही हैं? गौर करने वाली बात यह है कि सरकार ने भंडारण (स्टोरेज) के क्षेत्र में एफडीआई की इजाजत पहले ही दे रखी है। लेकिन अब तक इस क्षेत्र में कोई विदेशी निवेश नहीं हुआ है। नए तरह के बिचौलिए आएंगे सामने खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के समर्थकों का कहना है कि इससे बाजा़र में सबसे ज़्यादा फायदे में रहने वाले बिचौलिए गायब हो जाएंगे क्योंकि खुदरा की विदेशी दुकानें किसानों से उनके उत्पाद सीधे तौर पर खरीदेंगे और इससे किसानों को काफी फायदा होगा। लेकिन कृषि विशेषज्ञ डॉ. देविंदर शर्मा का कहना है कि यह धारणा गलत है। उन्होंने अमेरिका में हुए एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा है कि 20 वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका के किसानों को लागत निकालने के बाद करीब 70 फीसदी की कमाई होती थी। लेकिन 2005 में यह फायदा गिरकर 4 फीसदी पर आ गया। ऐसे में किसानों को कहां फायदा हो रहा है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि खुदरा की बड़ी दुकानें अपने साथ नए तरह के बिचौलिए लेकर आती हैं। एफडीआई के बाद क्वॉलिटी कंट्रोलर, स्टैंडर्डाइजर, सर्टिफिकेशन एजेंसी, प्रॉसेसर और पैकेजिंग कंसलटेंट के रूप में नए बिचौलिए सामने आएंगे। क्यों विरोध - लगता है इससे छोटे दुकानदारों का धंधा ठप हो जाएगा और किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य नहीं मिलेगा। - बड़ी विदेशी कंपनियां बाजार का विस्तार नहीं करेंगी बल्कि मौजूदा बाजार पर ही काबिज हो जाएंगी। ऐसे में खुदरा बाजार से जुड़े 4 करोड़ लोगों पर इसका असर पड़ेगा। -विदेशी कंपनियां अपने बाजार से ही सामान खरीदेंगी और ऐसे में घरेलू बाजार से नौकरी छिनेगी। -इस मसले पर भारत और चीन की तुलना गलत है। चीन विदेशी कंपनियों का सबसे बड़ा सप्लायर है और भारत में रिटेल में एफडीआई होने पर चीन का ही सामान यहां बिकेगा। -जिस सप्लाई चेन के बनने की बात सरकार खुद कर रही है वो काम भी उसी का है। अगर सरकार सप्लाई चेन दुरस्त कर दे तो किसानों को इसका फायदा बिना एफडीआई के ही मिलने लगेगा। समर्थन में तर्क -एफडीआई से अगले तीन साल में रिटेल सेक्टर में एक करोड़ नई नौकरियां मिलेंगी। -किसानों को बिचौलियों से मुक्ति मिलेगी और अपने सामान की सही कीमत भी। -कंज्यूमर को क्या फायदा– लोगों को कम दामों पर विश्व स्तर की चीजें उपलब्ध होंगी। -छोटे दुकानदारों को नुकसान या फायदा– छोटे दुकानदार को कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि बड़ी कंपनियों और छोटे दुकानदारों के कारोबार करने का तरीका अलग-अलग है। -विदेशी कंपनियां सप्लाई चेन सुधारेंगी तो खाद्य सामग्री का खराब होना थमेगा। -सामान कम खराब होगा तो इससे खाद्य महंगाई भी सुधरेगी। -विदेशी कंपनियों को कम से कम 30 फीसदी सामान भारतीय बाजार से ही लेना होगा। इससे देश में नई तकनीक आएगी। लोगों की आय बढ़ेगी और इसका फायदा औद्योगिक विकास दर को मिलेगा। - देश की बड़ी कंपनियों को पहले ही रिटेल में आने की इजाजत है। चीन हो या फिर इंडोनेशिया जहां भी रिटेल में एफडीआई को मंजूरी दी गई वहां एग्रो-प्रोसेसिंग इंडस्ट्री के दिन फिर गए। भारत में मौजूद बड़े खिलाड़ी वॉलमार्ट: वॉलमार्ट स्टोर एक अमेरिकी पब्लिक कारपोरेशन है। इसकी स्थापना १९६२ में सैम वाल्टन ने की थी। यह अमेरिका एवं मेक्सिको का सबसे बड़ा निज़ी नियोजक है। यह कंपनी भारत के भारती समूह के साथ मिलकर छह बड़ी दुकानें चलाती है। इन दुकानों में किसानों से सामान लेकर थोक विक्रेताओं को बेचा जाता है। वॉल-मार्ट का टर्नओवर 446 अरब अमेरिकी डॉलर का है। टेस्को: ब्रिटेन की सबसे बड़ी रीटेल कंपनी टेस्को भारत में टाटा समूह की रिटेल कंपनी ट्रेंट के साथ मिल कर काम करती है। मेट्रो: जर्मनी की रिटेल कंपनी मेट्रो एजी भारत में छह थोक दुकानें चलाती है। कारफोर: फ़्रांस की यह कंपनी दिल्ली में दो थोक दुकानें चला रही है।

बढ़ती जनसंख्या का संकट

दुनिया की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। भारत तो इससे सबसे ज्याद प्रभावित देशों की कतार में है। अनुमान है कि देश की जनसंख्या वर्ष 2016 तक 1.26 अरब तक बढ़ जाएगी। अनुमानित जनसंख्या का संकेत है कि 2050 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा और चीन का स्थान दूसरा होगा। दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 2.4% परन्तु विश्व की जनसंख्या का 18% धारण कर भारत का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव काफी बढ़ गया है। कई क्षेत्रों पर पानी की कमी, मिट्टी का कटाव और कमी, वनों की कटाई, वायु और जल प्रदूषण के कारण बुरा असर पड़ रहा है। भारत की जल आपूर्ति और स्वच्छता सम्बंधित मुद्दे पर्यावरण से संबंधित कई समस्याओं से जुड़े हैं। तेजी से बढ़ती जनसंख्या और इसी के नतीजतन, आर्थिक विकास के कारण भारत में कई बड़ी पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। समस्या पर प्रकाश डालती अनिल दीक्षित की रिपोर्टः- सबसे तेज जनसंख्या वृद्धि दुनिया की जनसंख्या और शहरीकरण के रुझान पर हाल में जारी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में सबसे अधिक आबादी भारत में बढ़ रही है और सबसे अधिक शहरीकरण भी यहीं हो रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2025 तक भारत में एक करोड़ से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या छह हो जाएगी। ये शहर होंगे- दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद। इनमें दिल्ली तीन करोड़ 29 लाख के आंकड़े के साथ टोक्यो के बाद दुनिया का दूसरा सर्वाधिक आबादी वाला शहर होगा। मुंबई दो करोड़ 66 लाख के साथ चौथा और कोलकाता एक करोड़ 87 लाख के साथ दुनिया का 12 वां सबसे बड़ा शहर होगा। बेंगलुरु की आबादी एक करोड़ 32 लाख, चेन्नई की एक करोड़ 28 लाख और हैदराबाद की एक करोड़ 16 लाख हो जाएगी। दुनिया में इनका स्थान 23 वां, 25 वां और 31 वां होगा। रिपोर्ट के अनुसार, 2025 तक दुनिया की शहरी आबादी में 72 प्रतिशत वृद्धि होगी तथा यह वर्तमान तीन अरब 60 करोड़ से बढ़कर छह अरब 30 करोड़ हो जाएगी। कई देशों में शहरी इलाकों में बच्चों का लिंगानुपात कम हुआ है और लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या में कमी आई है। वर्ष 2060 में अधिकतम जनसंख्या जनसंख्या पर संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक विभाग की ओर से दुनिया के जनसांख्यिकी संबंधी अनुमान के आधार पर तैयार ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2060 में भारत की आबादी अपने सबसे अधिकतम स्तर पर पहुँच जाएगी। इसके बाद गिरावट का दौर शुरू हो जाएगा। रिपोर्ट के अनुसार चीन की जनसंख्या वर्ष 2030 में अपने अधिकतम स्तर को छू लेगी. तब चीन की आबादी एक अरब 39 करोड़ होगी। फिर अफ्रीका के देशों की आबादी में तेज़ी से बढ़ोत्तरी का दौर शुरू होगा। रिपोर्ट के आंकड़े दुनिया भर में योजनाओं की तैयारी में इस्तेमाल किए जाते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2050 में दुनिया की आबादी नौ अरब 31 करोड़ तक पहुँच जाएगी। ये आंकड़ा वर्ष 2008 में जारी किए गए आंकड़े के मुक़ाबले क़रीब डेढ़ अरब ज़्यादा है। सदी के अंत तक विश्व की आबादी 10 अरब से भी अधिक होगी। आबादी दर में गिरावट दुनिया की आबादी को पांच अरब से छह अरब तक पहुंचने में 11 वर्षों का समय लगा था, लेकिन इसमें एक अरब और लोग जुड़ने में 13 वर्ष लग गए। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 31 अक्तूबर 2011 को दुनिया की आबादी ने सात अरब का आंकड़ा पार किया। इसकी एक बड़ी वजह दुनियाभर में प्रजनन स्तर और मृत्यु दर में गिरावट है। ये चलन विकसित देशों में ही नहीं बल्कि दक्षिण एशिया और लातिन अमेरिकी देशों में भी देखा गया है। अरब देशों को छोड़ दें तो एशिया प्रशान्त देशों में भी जनसंख्या में वृद्धि की दर क़रीब एक फीसदी है। लेकिन अफ़्रीकी देशों में ये चिंता का विषय है, वहां ये दर क़रीब ढाई फीसदी है। ये देश सबसे कम विकसित हैं और यहां आबादी सबसे तेज़ी से बढ़ रही है.संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के मुताबिक आने वाले 40 वर्षों में जो आबादी बढ़ेगी वो ज़्यादातर शहरों में ही रहेगी, लेकिन मौजूदा हालात में शहरों में इस बढ़ोत्तरी को समाने की क्षमता नहीं है। भारत में अधिक युवा वर्तमान में चीन, अफ़्रीका और विकसित देशों की तुलना में भारत में कहीं अधिक युवा लोग हैं इसके आधार पर समझा जाता है कि भारत में आबादी की औसत उम्र 25 साल है। देश की आबादी के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि देश में नवजात से 14 साल के बच्चों की आबादी 31.1 प्रतिशत, 15 से 64 वर्ष तक 63.6 और 65 से ऊपर के लोगों की तादात 5.3 प्रतिशत है। युवाओं की संख्या ही तेज की असली शक्ति कही जाती है। सिद्ध होता है कि आर्थिक नीतियों से विकास की तेज रफ्तार पकड़ चुके चीन की तुलना में हमारे पास भी अच्छी खासी युवा शक्ति है, फिर भी हम विकासशील देश का दर्जा हाल-फिलहाल विकसित देश में बदलने में सक्षम नहीं लग रहे। समाजशास्त्रियों के मुताबिक, युवा जनसंख्या को मानव संसाधन के रूप में ढालकर आर्थिक विकास का घटक बनाया जा सकता है। एक ताजा अध्ययन के मुताबिक भारत की श्रम शक्ति नई वैश्विक जरूरतों के मुताबिक तैयार हो जाए तो वह भविष्य में एक ऐसी पूंजी साबित होगी, जिसकी मांग दुनिया के हर देश में होगी। बुनियादी सुविधाएं दयनीय जनसंख्या बढ़ने के साथ ही जीविकोपार्जन के संसाधनों में लोगों की हिस्सेदारी बढ़ने लगी है। पर्यावरण पर दबाव बहुत बढ़ गया है। शहरों में जनस्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं दयनीय स्थिति में हैं। प्रतिदिन निकलने वाले कूड़े-करकट को हटाने और ठिकाने लगाने की व्यवस्था नहीं है। बिजली-पानी की भारी कमी, खराब सड़कें, जमीन और जल का गहरा प्रदूषण, बेकाबू बीमारियां, ट्रैफिक जाम, घटिया जल-मल निकास व्यवस्था, लूटपाट, भीड़-भाड़ और संकरी गलियां भारतीय शहरों का अभिन्न अंग बन गई हैं। जनसंख्या संबंधी भिन्नता, असंगठित शहरीकरण और बढ़ता सामाजिक-आर्थिक असंतुलन इस तरह के अपराधों को पनपने के लिए उर्वर भूमि उपलब्ध कराते हैं। कहा जा रहा है कि अपराध बढ़ रहे हैं, उन्हें अंजाम देने वाले एकदम नए चेहरे हैं। यानी चेन खींचने, अपहरण और हत्याओं को अंजाम देने वाले इन अपराधियों ने पहली बार इस दिशा में कदम बढ़ाया है। इन नए तरह के अपराधियों की पीढ़ी जो सामने आई है, उससे इस बात का खुलासा होता है कि अपराधों को अंजाम दे रहे लोग या तो वह हैं जो आधुनिक जीवन की जरुरतों के साथ ताल से ताल मिलाने की होड़ के बुरी तरह शिकार हैं या फिर ऐसे लोग हैं जो मौजूदा अंसतुलित विकास और संसाधनों के कुछ लोगों तक ही सीमित रहने का दंश झेल रहे हैं। अकेले राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां पिछले साल की अपेक्षा इस साल 15 जुलाई तक अपराधों में जो इजाफा हुआ, उसमें योगदान उन लोगों का ज्यादा था जो पुलिस फाइलों में अपराधी के रूप में अब तक दर्ज नहीं थे। सीनियर सिटीजन और अधिक असुरक्षित हुए हैं। आबादी क्षेत्रों का बेतरतीब विस्तार बढ़ती जनसंख्या की वजह से शहर और गांव-देहात के आबादी क्षेत्रों में बेतरतीब विस्तार हो रहा है। नेशनल कमेटी फॉर डेवलपमेंट इन रूरल एण्ड अर्बन एरियाज़ की रिपोर्ट के अनुसार, जिस विकास का बखान किया जा रहा है वह काफी हद तक संतुलित नहीं है। हालांकि एक वर्ग शहरीकरण को देश के लिए एक असाधारण वरदान का नाम देता है। इतिहास गवाह है कि जिन देशों में शहरों की प्रगति ज्यादा होती है , वहां आर्थिक अवसरों की उपलब्धता उतनी ही अधिक होती है। शहर किसी भी राष्ट्र के विकास के आधार स्तंभ होते हैं। जैसे-जैसे शहरों का विकास होता है, वैसे-वैसे नया बाजार तैयार होता है। प्रतिभाएं बढि़या शहरों में ही टिक सकती हैं। एक ऐसे समय में , जब दुनिया के सारे देश शहरीकरण से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का सामना करने एवं अपने शहरों को वैश्विक लाभ के लिए सजाने-संवारने की योजनाएं बना रहे हैं , भारत के शहरों को भी संवारना आवश्यक हो गया है। भारत के लिए शहरीकरण की चुनौतियों के बीच विकास की भारी संभावनाएं हैं। हमें देश में नई वैश्विक जरूरतों के परिप्रेक्ष्य में शहरों में विकास की मूलभूत संरचना, मानव संसाधन के बेहतर उपयोग , जीवन की सुविधाओं तथा सुरक्षा कसौटियों के लिए सुनियोजित प्रयास करने की जरूरत है। देश के ज्यादातर शहरों में नवीनीकरण और वर्तमान व्यवस्थाओं में बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है। हमें कुछ चमकते हुए शहरों को ही नियोजित शहर बनाने की बजाय छोटे-बड़े सभी शहरों के विकास पर ध्यान देना होगा। नई वैश्विक जरूरतों की पूर्ति करने वाले शहरों के विकास की दृष्टि से भारत के लिए यह एक अच्छा संयोग है कि अभी देश में ज्यादातर शहरी ढांचे का निर्माण बाकी है और शहरीकरण की चुनौतियों के लिए देश के पास शहरी मॉडल को परिवर्तित करने और बेहतर सोच के साथ शहरों के विकास का पर्याप्त समय अभी मौजूद है। सर्वाधिक मलिन बस्तियां भारत में जनसंख्या, खासकर शहरी जनसंख्या तेजी से बढ़ने के कारण आर्थिक-सामाजिक चुनौतियां भी बढ़ रही हैं। दुनिया की कुल आबादी में भारत की हिस्सेदारी 17.5 फीसदी हो गई है जबकि पृथ्वी के कुल धरातल का मात्र 2.4 फीसदी हिस्सा ही भारत के पास है। अभी 121 करोड़ आबादी के साथ भारत 134 करोड़ की सर्वाधिक जनसंख्या वाले चीन के काफी करीब पहुंच गया है। देश के शहरों में तेजी से बढ़ती जनसंख्या का संसाधनों पर जबरदस्त दबाव पड़ रहा है। वस्तुत: दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में भारतीय शहर कहीं ज्यादा चिंताजनक स्थिति में हैं। इसका सबसे सीधा असर आवास समस्या के रूप में दिखाई पड़ रहा है। शहरों में मकानों की कमी के कारण मलिन बस्तियां वर्ष-प्रतिवर्ष तेजी से बढ़ती जा रही हैं। दुनिया की सबसे अधिक मलिन बस्तियां भारत में हैं और ये शहरी भारत के लगभग चार फीसदी हिस्से पर बनी हुई हैं। इन बस्तियों में लोग कदम-कदम पर ढेर सारी कठिनाइयों का सामना करने और नारकीय जीवन जीने के लिए विवश हैं। यही नहीं, यह बस्तियां अपराध जैसी बुराइयों को बढ़ावा भी दे रही हैं।

पेट्रोल

क्या होता है पेट्रोल पेट्रोल या गैसोलीन एक पेट्रोलियम से प्राप्त तरल-मिश्रण है। इसे प्राथमिकता से अन्तर्दहन इंजन में बतौर ईंधन और एसीटोन की तरह एक शक्तिशाली घुलनशील द्रव्य की तरह प्रयोग किया जाता है। इसमें कई एलिफैटिक हाइड्रोकार्बन होते हैं, जिसके संग आइसो-आक्टेन या एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसे टॉलुईन और बेंजीन भी मिलाए जाते हैं, जिससे इसकी ऑक्टेन क्षमता (ऊर्जा) बढ़ जाये। इसका वाष्पदहन तापमान शून्य से 62 डिग्री (सेल्सियस) कम होता है, यानि सामान्य तापमान पर इसका वाष्प दहनशील होता है। इसी वजह से इसे अत्यंत दहनशील पदार्थों की श्रेणी में रखा जाता है। कई ठण्डे देशों में इसको प्राथमिकता से प्रयोग में लाया जाता है क्योंकि बहुत कम तापमान में इसकी ज्वलनशीलता बाक़ी ईंधनों के मुकाबले अधिक होती है। सामान्य तापमान पर इसका घनत्व 740 किलो प्रति घनमीटर होता है जो पानी (1000) से हल्का है। अर्थशास्त्रियों और वकीलों से अटी पड़ी कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार पेट्रोल को अमीरों का ईंधन मान बैठी है। हकीकत यह है कि देश के साठ फीसदी से ज्यादा दुपहिया-तिपहिया वाहनों की बिक्री छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में होती है। महानगरों में निम्न मध्यवर्ग ही पेट्रोल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। जापान की होंडा मोटर्स दुनियाभर में पेट्रोल कारों के लिए जानी जाती है मगर भारत में डीजल कारें भी बनाती है क्योंकि हमारी सरकार ने लक्जरी डीजल कारों को खैरात बांटने की शपथ ले रखी है। एक और विडंबना देखिए। भारत के 90 फीसदी तेल कारोबार पर सरकारी कंपनियों का नियंत्रण है और सरकार की मानें तो ये कंपनियां जनता को सस्ता तेल बेचने के कारण भारी घाटे में हैं। दूसरी ओर, फॉच्र्यून पत्रिका के मुताबिक दुनिया की आला 500 कंपनियों में भारत की तीनों सरकारी तेल कंपनियां- इंडियन ऑयल (98), भारत पेट्रोलियम (271) और हिंदुस्तान पेट्रोलियम (335)- शामिल हैं। तेल और गैस उत्खनन से जुड़ी दूसरी सरकारी कंपनी ओएनजीसी भी फॉच्र्यून 500 में 360वीं रैंक पर है। आखिर यह कैसे संभव है कि सरकार घाटे का दावा कर रही है लेकिन तेल कंपनियां की बैलेंसशीट खासी दुरुस्त है। दरअसल भारत में रोजाना 34 लाख बैरल ( एक बैरल में 159 लीटर) तेल की खपत होती है और इसमें से 27 लाख बैरल तेल आयात किया जाता है। आयात किए गए कच्चे तेल को साफ करने के लिए रिफाइनरी में भेज दिया जाता है। तेल विपणन कंपनियों के कच्चा तेल खरीदने के समय और रिफाइनरी से ग्राहकों को मिलने वाले तेल के बीच की अवधि में तेल की कीमतें ऊपर-नीचे होती हैं। यहीं असली पेंच आता है। फिलहाल अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल 110 डॉलर प्रति बैरल है और अंडररिकवरी हमेशा मौजूदा कीमतों के आधार पर तय की जाती है। विडंबना देखिए, सरकार 120 डॉलर प्रति बैरल के पुराने भाव से अंडररिकवरी की गणना करके भारी-भरकम आंकड़ों से जनता को छलती है। तेल विपणन कंपनियों का कथित घाटा भी आंकड़ों की हेराफेरी है। सकल रिफाइनिंग मार्जिन (जीआरएम) इसका सबूत है। कच्चे व शोधित तेल की कीमत के बीच के फर्क को रिफाइनिंग मार्जिन कहा जाता है और भारत की तीनों सरकारी तेल विपणन कंपनियों का जीआरएम दुनिया में सबसे ज्यादा है। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में तेल विपणन कंपनियों का जीआरएम चार डॉलर से सात डॉलर के बीच रहा है। चीन भी भारत की तरह तेल का बड़ा आयातक देश है जबकि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के मुताबिक चीन का रिफाइनिंग मार्जिन प्रति बैरल शून्य से 2.73 डॉलर नीचे है। यूरोप में तेल भारत से महंगा है लेकिन वहां भी जीआरएम महज 0.8 सेंट प्रति बैरल है। दुनिया में खनिज तेल के सबसे बड़े उपभोक्ता अमेरिका में रिफाइनिंग मार्जिन 0.9 सेंट प्रति बैरल है। अमेरिका और यूरोप में तेल की कीमतें पूरी तरह विनियंत्रित हैं और बाजार भाव के आधार पर तय की जाती हैं। अंडररिकवरी की पोल खोलने वाला दूसरा सबूत शेयर पर मिलने वाला प्रतिफल यानी रिटर्न ऑन इक्विटी (आरओई) है। आरओई के जरिए शेयरहोल्डरों को मिलने वाले मुनाफे का पता चलता है। भारतीय रिफाइनरियों का औसत आरओई 13 फीसदी है, जो ब्रिटिश पेट्रोलियम (बीपी) के 18 फीसदी से कम है। अगर हकीकत में अंडररिकवरी होती तो मार्जिन नकारात्मक होता और आरओई का वजूद ही नहीं होता। जाहिर है, भारत में तेल विपणन मुनाफे का सौदा है और भारतीय ग्राहक दुनिया में सबसे ऊंची कीमतों पर तेल खरीदते हैं। महंगे तेल की एक और वजह है। हमारे देश में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने तेल विपणन को खजाना भरने का जरिया बना लिया है। पेट्रोल पर तो करों का बोझ इतना है कि ग्राहक से इसकी दोगुनी कीमत वसूली जाती है। ताजा बढ़ोतरी के बाद दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 73.14 रुपए है और जबकि तेल विपणन कंपनियों के सारे खर्चों को जोड़कर पेट्रोल की प्रति लीटर लागत 30 रुपए के आस-पास ठहरती है। केंद्र सरकार जहां कस्टम ड्यूटी के रूप में साढ़े सात फीसदी लेती है वहीं एडिशनल कस्टम ड्यूटी के मद में दो रुपए प्रति लीटर, काउंटरवेलिंग ड्यूटी के रूप में साढ़े छह रुपए प्रति लीटर, स्पेशल एडिशनल ड्यूटी के मद में छह रुपए प्रति लीटर, सेनवेट के मद में 6.35 रुपए प्रति लीटर, एडिशनल एक्साइज ड्यूटी दो रुपए प्रति लीटर और स्पेशल एडिशनल एक्साइज ड्यूटी के मद में छह रुपए प्रति लीटर लेती है। राज्य सरकारें भी वैट, सरचार्ज, सेस और इंट्री टैक्स के मार्फत तेल में तड़का लगाती हैं। दिल्ली में पेट्रोल पर 20 फीसदी वैट है जबकि मध्य प्रदेश में 28.75 फीसदी, राजस्थान में 28 फीसदी और छत्तीसगढ़ में 22 फीसदी है। मध्य प्रदेश सरकार एक फीसदी इंट्री टैक्स लेती है और राजस्थान में वैट के अलावा 50 पैसे प्रति लीटर सेस लिया जाता है। ----------------------------- भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश हैं जहां सरकार की भ्रामक नीतियों के कारण विमान में इस्तेमाल होने वाला एयर टरबाइन फ्यूल यानी एटीएफ, पेट्रोल से सस्ता है। दिल्ली में पेट्रोल और एटीएफ की कीमतों में तीन रुपए का फर्क है और नागपुर जैसे शहरों में तो एटीएफ, पेट्रोल से 15 रुपए तक सस्ता है। एटीएफ और पेट्रोल की कीमतों के बीच यह अंतर काउंटरवेलिंग शुल्क और मूल सेनवैट शुल्क की अलग-अलग दरों के कारण है। सरकार सब्सिडी खत्म करने का भी तर्क देती है। सब्सिडी को अर्थशास्त्र गरीब मानव संसाधन में किया गया निवेश मानता है लेकिन हमारी सरकार इस सब्सिडी को रोककर तेल कंपनियों का खजाना भरना चाहती है। ----------------------------- आज जब कच्चे तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमत अगस्त 2008 की कीमत से भी कम है, फिर किस तर्क पर सरकार ने इसके मूल्य में साढ़े सात रुपए की बढ़ोतरी कर दी, यह समझ से परे है। दैनिक भास्कर डॉट कॉम के कैलकुलेशन के अनुसार, फिलहाल पेट्रोल का बेसिक प्राइस 42 रुपए निकलता है जिसके बाद केंद्र और राज्य सरकारें उसमें अपने 35-40 रुपए टैक्स और ड्यूटीज जोड़ती हैं, जिसके कारण दाम 82 रुपए तक हो जाता है। आज कच्‍चा तेल 100 डॉलर प्रति बैरल के हिसाब से मिल रहा है। एक डॉलर 56 रुपए के बराबर है तो एक बैरल का दाम हुआ 5600 रुपए हुआ। यह अगस्त 2008 की तुलना में 6 प्रतिशत सस्ता है। उस समय यह 5900 रुपए प्रति बैरल मिल रहा था। इसके बावजूद सरकार ने तेल कंपनियों को 7.5 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी करने से रोका नहीं। एक बैरल में लगभग 150 लीटर कच्चा तेल आता है। इस एक बैरल तेल को रिफाइन कर पेट्रोल में बदलने का कुल खर्च 672 रुपए निकलता है। इस तरह से पेट्रोल का दाम 42 रुपए प्रति लीटर से भी कम हुआ। (5600+672/150= 41.81)। इसका दाम बढ़कर 77-81 रुपए हो जाता है क्योंकि इसमें बेसिक एक्साइज ड्यूटीज सहित अन्य ड्यूटीज और सेस के साथ स्टेट सेल्स टैक्स भी जोड़ा जाता है। इससे 42 रुपए में 35-40 रुपए और जुड़कर इसका दाम उतना हो जाता है। इस तरह से केंद्र और राज्य दोनों मिलकर आम जनता की भलाई के नाम पर पैसा उगाहने के लिए उन्हीं के जेब पर बोझ बढ़ाते हैं। दुनिया को रफ्तार देने के लिए कच्च तेल एक बहुत बड़ा जरिया बन चुका है। इस जरिए पर दुनिया के चंद देशों की हुकूमत ही चलती है। इन देशों के तेल देने से मना करते ही करीब आधी दुनिया ठप हो जाएगी। हम बात कर रहे हैं ऐसे देशों की, जो तेल के बेताज बादशाह हैं। पूरी दुनिया तेल को लेकर इन्हीं देशों पर पूरी तरह से निर्भर है, फिर चाहे वो भारत हो या अमेरिका। आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि तेल पर हुकूमत करने वाले किन देशों में कच्चे तेल का कितना भंडार है? देखें- वेनुज़वेला के पास 296,500,000,000 बिलियन बैरल का आइल रिज़र्व है। वेनुज़वेला यूनाइटेड स्टेजिस स्टेट को सबसे ज्यादा आइल सप्लाई करता है। वेनुज़वेला यूनाइटिड स्टेट को एक दिन में 1.4 मिलियन बैरल तेल निर्यात करता है। इरान के पास 150,600,000,000 बिलियन बैरल तेल का रिज़र्व है। इरान का प्रोडक्शन 1074 में सबसे अधिक था जब वह एक दिन में 60 लाख बैरल तेल एक दिन में उत्पादित करता था। कनाडा के पास 175,200,000,000 बिलियन का रिज़र्व है। कनाडा का 99 प्रतिशत तेल यूनाइटिड स्टेट्स को निर्यात किया जाता है। कनाडा ही वह देश है जो यूनाइटिड स्टेट को सबसे अधिक तेल निर्यात करता है। साउदी अरेबिया का आइल रिजर्व 264,600,000,000 बिलियन बैरल का है। विश्व के पूरे आइल रिज़र्व का पांचवा हिस्सा सिर्फ साउदी अरेबिया के पास है। साउदी अरेबिया के पास गैस और आइल की 100 बड़ी गैस फील्ड हैं। साउदी अरब के कुल तेल का आधा उत्पादन तो सिर्फ 8 बड़े फील्ड में ही हो जाता है। इन फील्ड में दुनिया की सबसे बड़ी फील्ड घ्वार फील्ड भी शामिल है इराक के पास 143,500,000,000 का आइल रिज़र्व है। इराक चल रहे लगातार युद्धों के कारण 2001 के बाद से ऑफिशियल आंकड़े प्राप्त नहीं हुए हैं। इराक में मॉर्डनाइज़ेशन और इंवेस्टमेंट की जरूरत है। ----------------------------- पेट्रोल का दाम बढ़ाने के जो तर्क दिए जाते रहे हैं, उसकी हकीकत भी समझिए। पब्लिक सेक्टर के तेल कंपनियों की हानि की पूर्ति करना- सच यह है कि सरकार ज्‍यादा रकम टैक्‍स के रूप में रख लेती है और तेल कंपनियां अपनी रिफाइनिंग कैपेसिटी बढ़ाने के लिए नया निवेश नहीं कर पाती हैं। तेल के नए रिसोर्स की खोज भी वह नहीं कर पातीं। अन्य इंवेस्टर्स भी असुरक्षित महसूस कर अपने हाथ पीछे खींच लेते हैं। इन सबके चलते तेल के स्रोतों का धनी भारत पीछे रह जाता है और इनके मुकाबले सिंगापुर और इंडोनेशिया जैसे देश अपनी रिफाइनरी कैपेसिटी में आगे निकल जाते हैं। रुपए का तेजी से अवमूल्यन पिछले महीनों में रुपए का दस प्रतिशत अवमूल्यन करने से 51 रुपए का डॉलर 56 रुपए का हो गया। वहीं तेल भी तो 120 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 100 डॉलर हो गया। इसलिए, रुपए के अवमूल्यन को कारण बनाकर पेट्रोल का दाम बढ़ाने वाली बात सही नहीं लगती। सब्सिडी का रोना इस बार पेट्रोल का दाम बढ़ाने से पहले भी सरकार 42 रुपए का पेट्रोल 70 रुपए में बेच रही थी। कल के दाम बढ़ोतरी के बाद तो बेसिक पेट्रोल प्राइस पर सरकार और 83 प्रतिशत टैक्स ले रही है। फिर कैसी सब्सिडी? अब इससे ज्यादा और कितना बोझ सरकार आम आदमी पर डालेगी। सरकार तो डीजल तक पर सब्सिडी नहीं दे रही है। सब्सि़डी के नाम पर 44-46 रुपए में एक लीटर डीजल मिल रहा है जबकि रिफाइनिंग से लेकर सारे कॉस्ट मिलाकर इसका दाम 42 रुपए प्रति लीटर आता है। ----------------------------- दुनिया में एक देश ऐसा भी है जहां पेट्रोल पानी से भी सस्ता मिलता है। दुनिया में सबसे सस्ता पेट्रोल वेनेजुएला के काराकस में मिलता है। काराकस में 1 लीटर पेट्रोल की कीमत 3 रुपये से भी कम है। यहां लोगों को हर लीटर पेट्रोल के लिए 2.49 पैसे चुकाने होते हैं। यहां की 90 फीसदी से ज्यादा की अर्थव्यवस्था केवल तेल पर ही टिकी हुई है। इस देश में पेट्रोल नदियों में पानी की तरह हर जगह बहता है। हालांकि यहां के लोगों को पानी के लिए पेट्रोल से भी ज्यादा कीमत चुकानी होती है। दिलचस्प है कि 1980 में काराकस सरकार ने पेट्रोल की कीमते बढ़ाने के प्रयास किये थे। इस प्रयास के चलते यहां भारी दंगा मच गया था, जिसमें सैंकड़ों लोगों की मौत भी हो गई थी। दुनिया में दूसरे नंबर पर सबसे सस्ता तेल रियाद में मिलता है। यहां पर लोगों को प्रति लीटर तेल के लिए 6.70 रुपये चुकाने होते हैं। यहां भी काराकस की तरह पानी के लिए पेट्रोल से ज्यादा पैसा चुकाना होता है। ----------------------------- अमेरिकी सीनेट की सशस्त्र सेना समिति के अध्यक्ष कार्ल लेविन ने कहा है विवादास्पद परमाणु कार्यक्रमों को ईरान पर हवाई हमले किए जाने से पहले विश्व समुदाय को ईरान के तेल निर्यातों की समुद्री घेराबंदी करनी चाहिए। लेविस ने एक टीवी चैनल के लिए रिकार्ड किए गए कार्यक्रम में कहा 'मुझे लगता है कि संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्थाओं के अनुकूल ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को सीमित करने का उस पर दबाव बढ़ाने के लिए यह कदम जरूरी है।' इस बीच अमेरिकी विदेश मंत्नी हिलेरी क्लिंटन ने कहा कि ईरान पर दबाव बढ़ाने के लिए उस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के कड़ाई से पालन के लिए उत्तर कोरिया जैसे देशों से लगातार बातचीत हो रही है और इस दिशा में अच्छी प्रगति हुई है।

जेनरिक दवाइयां

जेनरिक दवाएं क्या हैं, और इनकी कीमत कम क्यों होती है। क्या होती है जेनरिक दवाइयां? जेनरिक दवाइयों के सन्दर्भ में जिनरिक (फार्माकोपियल) शब्द का अर्थ दवा के मूल घटक से है। उस मूल घटक से ही प्रजाति विशेष जो दवाएं तैयार होती हैं उन्हें जेनरिक या प्रजातिगत दवा कहते हैं। उदाहरण के तौर पर बाजार में गेहूँ का जो आटा 15 रुपए किलो बिकता है, उसे हम जेनरिक दवा मान लेते हैं। अब अगर यही आटा कोई आदमी या कम्पनी अपने मार्के के साथ 40 रुपए किलो के हिसाब से बेचे तो उसे कहेंगे एथिकल दवा। कोई भी निर्माता एक उत्पाद को जेनरिक या ब्रान्ड नाम से बेच सकता है। चूकिं ब्रान्ड पर निर्माता का एकाधिकार होता है तथा वह अपने ब्राण्ड को प्रसिद्ध और प्रचार-प्रसार करने के लिए खूब सारा खर्चा करता है। वह बिचौलियों यानी दवा विक्रेताओं, अपने विक्रय प्रतिनिधियों और डॉक्टरों को कमिशन देता है। इस वजह से ब्रान्डिड दवाएं जेनरिक से बहुत मंहगी हो जाती है, हालांकि दोनों की गुणवत्ता समान ही होती है। सरकार का आग्रह जेनरिक पर क्यों? अधिकांश दवाइयों की निर्माण लागत बहुत कम होती है, लेकिन वे विभिन्न कारणों से रोगियों को कम दामों पर नहीं मिल पाती हैं, जैसे- चिकित्सक किसी दवा कम्पनी के ब्रान्ड नाम की दवा लिखते हैं, इससे प्रतिस्पर्धा हतोत्साहित होती है और बाजार में कृत्रिम एकाधिकार की स्थिति बनती है, जिसमें दवा कम्पनी द्वारा अधिकतम खुदरा मूल्य काफी ज्यादा रखा जाता है। एक बार फिर वही उदाहरण कि डॉक्टर आपसे कहे कि गेहूँ का आटा खाओ, तो आप कहीं से भी खरीदकर खा लेंगे, अब अगर वही डॉक्टर आपसे कहे कि नत्थू की चक्की से लेकर गेहूँ का आटा खाओ, तो आपकी मजबूरी है कि जिस भाव नत्थू आटा बेचे उसी भाव खरीदना पड़ेगा। यही वजह है कि सरकार का आग्रह है कि डॉक्टर दवा का जेनरिक नाम लिखें। यानी डॉक्टर गेहूँ का आटा ही लिखें, किसी विशेष चक्की का आटा न लिखें। क्यों मंहगी हैं एथिकल दवा? भारत में अधिकतर दवाइयां 'औषधि मूल्य नियंत्रण' से मुक्त होने के कारण निर्माता अपनी ब्रान्डिड दवाइयों पर अधिकतम खुदरा मूल्य बहुत ज्यादा लिखते हैं। औषधि विक्रेता वही कीमत मरीज से वसूल करता है। उपभोक्ताओं को यह बात मालूम ही नहीं है कि अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत बहुत कम होती है। इसके अलावा यदि चिकित्सक ने किसी ब्रांड विशेष की दवा लिख दी तो फिर मरीज के पास उसे खरीदने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता, भले ही बाजार में वही घटक दवा कम कीमत पर उपलब्ध हो। दूसरी वजह हमारी मानसिकता है। हम यह मान कर चलते हैं कि अगर दोनों प्रकार की दवाओं के मूल्य में इतना अंतर है तो मंहगी दवा में जरूर कोई न कोई विशेषता होगी। दवा निर्माता कम्पनियां इसी भ्रम का फायदा उठाती हैं। उदाहरण के लिए एलर्जी या जुकाम के लिए एक दवा है सिट्रिजिन। कुछ कम्पनियां एलडे या सिटेन के नाम उसकी एक गोली को 5 से 6 रुपए में बेचती हैं, जबकि यही गोली अपने मूल नाम से मात्र 18 से 20 पैसे में उपलब्ध है। क्यों होती है ये दवाइयां सस्ती? किसी भी ब्रान्डिड या मौलिक दवा को बनाने में होने वाले शोध पर विशेष ज्ञान, समय तथा पूंजी लगती है, तब जाकर किसी कंपनी को एक दवा का एकाधिकार (पेटेंट)मिलता है। इन सब खर्चों के बाद कंपनी का मुनाफा और उस दवा को बेचने के लिए डॉक्टरों पर होने वाला खर्च भी कीमतों को बढ़ाता है। दूसरी और जेनरिक दवाइयों पर केवल इनके निर्माण का ही खर्च होता है, इसलिए इनकी कीमत अपेक्षाकृत बहुत ही कम होती है। कुछ अड़चनें भी आईं सन 1990 में जब जेनरिक दवाओं को खुला बाजार मिला तो कई बड़ी ब्रान्डिड कंपनियों ने पेटेंट और कॉपीराइट जैसे मुद्दों को उठाया और इन दवाओं को रोकने के कई प्रयास किए। दूसरे, ब्रान्डिड दवाओं से कुछ डॉक्टरों के कमीशन और कंपनियों के हित सीधे जुड़े होते हैं इसलिए खुदरा विक्रेता के पास मौजूद होने के बावजूद भी डॉक्टर दवा का जेनरिक नाम नहीं लिखते, इसलिए दवा विक्रेताओं ने इन्हें रखना कम कर दिया। कितनी सस्ती कितनी मंहगी? अब जेनरिक दवाइयों की कीमतों में हो रहे बड़े घालमेल पर भी एक नजर डाल लेते हैं। हालांकि मौलिक और जेनरिक दवा की कीमतों में बहुत बड़ा अंतर होता है, पर जेनरिक दवा के थोक और खुदरा मूल्य के बीच का अंतर भी अविश्वनीय है। जेनरिक दवाइयां गुणवत्ता के सभी मापदण्डों में ब्रान्डिड दवाइयों के समान तथा उतनी ही असरकारक होती है। जेनरिक दवाइयों को बाजार में उतारने का लाइसेंस मिलने से पहले गुणवत्ता मानकों की सभी सख्त प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। दवा खरीदते समय यह ध्यान आपको रखना है कि जेनरिक दवा भी किसी नामी और अच्छी कम्पनी की हो, वरना बाजार नकली और घटिया दवाइयों से भरा पड़ा है। सलाह यह दी जाती है कि जेनरिक दवा हमेशा सरकारी दुकानों से ही खरीदें, बाजार में यह दवा आपको सस्ती नहीं मिलेगी। उदाहरण के लिए जेनरिक दवा सिट्रिजिन की 10 गोली का एक पत्ता सरकारी दुकान पर 2 से ढाई रुपए का मिलता है जबकि बाजार में यह 24 से 26 रुपए का मिलेगा।

Monday, September 5, 2011

यूं करें इंटरव्यू की तैयारी

इंटरव्यू यानि साक्षात्कार, किसी नौकरी को पाने के लिए इसे पास करना एक अहम और अनिवार्य चरण है। किसी भी परीक्षा में अभ्यर्थियों का एक बड़ा प्रतिशत ऐसा होता है जो लिखित परीक्षा तो उत्तीर्ण कर लेता है लेकिन साक्षात्कार पास नहीं कर पाता। जिस क्षेत्र में नौकरी पाना चाहते है, उसकी आपको अच्छी जानकारी है और आप इंटेलीजेंट भी हैं। फिर भी नौकरी हासिल करने के लिए आपको लंबी प्रक्रिया से तो गुजरना ही पड़ेगा, जिसमें स्क्रीनिंग, ग्रुप डिस्कशन और अंत में फाइनल इंटरव्यू का सामना करना पड़ता है। इनका सामना करने से पहले आपको अपनी शैक्षिक योग्यता के साथ-साथ कई अन्य स्तरों पर भी खुद को तैयार करना होगा जिससे आपको इंटरव्यू के दौरान किसी भी तरह के व्यवधान के बिना सफलता मिल सके। केरल के सेवायोजन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि साक्षात्कार में अनुत्तीर्ण अभ्यर्थियों का प्रतिशत बढ़ा है। उन मामलों में जहां इंटरव्यू चयन प्रक्रिया का अंतिम चरण है, वहां कंपनियां रिक्त पदों की तुलना में तीन गुना तक अभ्यर्थियों को बुलावा देने लगी हैं। पहले यह संख्या अधिकतम तक डेढ़ गुना तक हुआ करती थी। विशेषज्ञों के अनुसार, कामयाबी के लिए इंटरव्यू जहां पहली बाधा है तो प्रेजेंटेशन इसका दूसरा चरण है इसलिए इंटरव्यू की पुख्ता तैयारी अहम है। साक्षात्कार के लिए आपके मार्गदर्शन के क्रम में प्रस्तुत हैं कुछ टिप्स।

रखें याद
जिस कंपनी में आप साक्षात्कार देने जा रहे है, सबसे पहले उसके बारे में पूरी जानकारी हासिल कर लें। उसका विवरण अपने पास रखें।
जिस पद के लिए आप इंटरव्यू देने जा रहे हैं, उस विषय में जानकारियां हों।
अपनी भाषा और बातचीत के लहजे पर ध्यान दें।
साक्षात्कार से पहले अपने बायोडाटा (सीवी) पर आखिरी नजर जरूर डाल लें और इस बात से सुनिश्चित हो लें कि वह अपडेट है।
अपने आत्मविश्वास को किसी भी कीमत पर कम न होने दें। अक्सर स्टूडेंट्स इंटरव्यू के समय अपनी सोच निगेटिव बना लेते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि प्रतिभा होने के बावजूद इंटरव्यू के दबाव में बिखर जाते हैं। अपनी सोच को सकारात्मक रखें।
आपको लगता है कि आप बहुत जल्द नर्वस हो जाते है तो उसके भी उपाय है। शीशे के सामने खड़े होकर भी इंटरव्यू की प्रैक्टिस कर सकते है। इससे आपको खुद को परखने का मौका भी मिलेगा, साथ ही आत्मविश्वास भी।
आत्मविश्लेषण करना भी जरूरी है। इससे आप खुद की स्ट्रेंथ और वीकनेस, स्किल्स और टैलेंट को पहचानने में सफल होंगे। साथ ही साथ आप अपनी उपलब्धियों और करियर के लक्ष्य को भी स्पष्ट कर सकते है।
इंटरव्यू के एजेंडा का पूर्वानुमान लगाना भी इंटरव्यू की तैयारी के लिए बेहतर विकल्प है। पूर्वानुमानित प्रश्नों की सूची बनाएं और उनके उत्तर देने की कोशिश करें।
इंटरव्यू के दिन घटित घटनाओं को ध्यान में रखें। आपसे पूछा जा सकता है कि आपने कार्यालय के जिस द्वार से प्रवेश किया, रिसेप्शन काउंटर उससे किस दिशा में था। सीढ़ियां किस दिशा में थीं और काउंटर पर आपका स्वागत करने वाले कर्मचारी की नेम प्लेट पर क्या नाम लिखा था।
सवाल जितना पूछा जाए, उतना ही जवाब दें। जिस सवाल का जवाब न जानते हों, साफ-साफ बता दें कि मैं नहीं जानता। इससे उनको पता चल जाएगा कि आप एक ईमानदार व खुद की क्षमताएं पहचानने वाले व्यक्ति हैं।
बैंकिंग जॉब से संबंधित इंटरव्यू में उम्मीदवारों को पर्सनालिटी से लेकर बैंकिंग और इकॉनोमी से संबंधित ज्ञान की परख की जाती है।
वित्तीय क्षेत्र में इंटरव्यू के लिए बेहतर होगा कि आप करेंट अफेयर्स के साथ ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और अर्थव्यवस्था से संबंधित जानकारी से अपडेट रहें।
साक्षात्कार के अंत में पैनल को धन्यवाद कहना न भूलें। आतिथ्य सत्कार के व्यवसाय (होटल-रेस्टोरेंट्स चेन आदि) में इस पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि आपने इंटरव्यू शुरू होने से पहले अभिवादन किया या नहीं और धन्यवाद कहना आप भूले तो नहीं।
साक्षात्कार में सामान्य रूप से पूछे जाने वाले प्रश्न (साक्षात्कार में कुछ प्रश्न रोजगार के अवसर की प्रकृति के अनुसार बदल जाते हैं) -
अपने विषय में बताइये?
हमारी संस्था के विषय में आप क्या जानते हैं?
क्या आप समझते हैं कि आप इस जॉब के काबिल हैं?
आप हमारे लिए ऐसा कौन सा काम कर सकते हैं जो कोई दूसरा नहीं कर सकता?
जिस जाब के लिये साक्षात्कार लिया जा रहा है, उसके लिए कौन सी योग्यताएँ आवश्यक होती हैं?
आप हमारी संस्था में क्यों काम करना चाहते हैं?
अपने नियंत्रण-प्रबंध (control management) के विषय में बताइये?
एक प्रबंधक के लिए कौन से कार्य सर्वाधिक कठिन होते हैं?
पिछले सेवायोजक आपको कैसे व्यक्ति लगते थे?
आपके पिछले जाब में आपकी कौन कौन सी उपलब्धियाँ रही हैं?
क्या इस पद को आप अपने योग्य समझते है?
आपके करियर गोल्स (career goals) क्या हैं?
यदि आपका देश के किसी अन्य स्थान में स्थानांतरण कर दिया जाए तो क्या आपको स्वीकार होगा?
आप कौन कौन सी कमजोरियां हैं?
ऐसा कौन सा प्रश्न है जिसके पूछने की आप उम्मीद कर रहे थे किन्तु पूछा नहीं गया?
क्या आप हम से कुछ प्रश्न पूछना चाहते हैं?
यदि आपको हमसे कुछ पूछने के लिए कहा जाए तो आप क्या पूछेंगे?
किसी पाठ्यक्रम में प्रवेश की प्रक्रिया के तहत पूछे जाने वाले कुछ प्रश्न-
आपने करियर बनाने के लिए यह (जिसमें प्रवेश लेना है) कोर्स ही क्यों चुना?
हमारे संस्थान के बारे में जानकारी कहां से प्राप्त हुई?
क्या विशेषताएं आपको यहां प्रवेश के लिए खींच लाईं?
कोर्स के दौरान शिक्षण की बेहतरी के यदि कोई उपाय या कमियां आपकी समझ में आती हैं तो क्या बताएंगे?
याद रहे--
बेहतर आई कॉन्टैक्ट, आत्मविश्वास से भरी बॉडी लैंग्वेज, प्रश्नों के संक्षिप्त और सटीक उत्तर, विनम्रता के साथ स्पष्ट उच्चारण आपको साक्षात्कार में उत्कृष्ट बनाएगा। साथ ही इंटरव्यू प्रारंभ होने से पहले अभिवादन और अंत में धन्यवाद देना बेहद आवश्यक है। इससे पता चलता है कि आप कितने शालीन हैं और जॉब के लिए कितने उपयुक्त हैं।

Sunday, December 26, 2010

सरकोजी की यात्रा से भारत-फ्रांस में बढ़ी समझदारी

फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी चार दिवसीय यात्रा पर चार दिसम्बर को भारत आए। दशकों पुराने भारत-फ्रांस संबंधों में यह यात्रा बेहद महत्वपूर्ण पड़ाव मानी जा रही है। सरकोजी भारत यात्रा पर दूसरी बार आए। इससे पहले वह 2008 में गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि थे। सरकोजी और उनकी पत्नी कार्ला ब्रूनी ने अपनी यात्रा बंगलुरू से शुरु की और मुंबई पर खत्म। भारत के इन दोनों शहरों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्व है। मुंबई आर्थिक राजधानी है और बंगलुरू को तकनीकी राजधानी कहा जाने लगा है। इस यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने भारत के साथ सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक संबंधों को मजबूत करने की पहल की। उनके साथ फ्रांसीसी मंत्रिमंडल के 6 मंत्री और विभिन्न कंपनियों के 70 मुख्य कार्यकारी अधिकारी शामिल थे।
यात्रा का उद्देश्य-
भारत दौरे से फ्रांस यहां के व्यापार में अपनी और पकड़ बनाना चाहता था। इस तरह के विशाल शिष्टमंडल को साथ लाने का उद्देश्य आर्थिक मसलों पर आपसी विश्वास को बढ़ावा देना है। फ्रांस व भारत की वार्ताओं का मुख्य केंद्र परमाणु ऊर्जा एवं रक्षा समझौता रहा। ज्ञात हो कि भारत ने पहला परमाणु करार फ्रांस के साथ ही किया था। यह अमेररीका से हुए परमाणु करार से अधिक दूरगामी था और इसमें अमेरिकी करार की तरह शर्तें भी नहीं थोपी गयी थीं। निकोलस सरकोजी की इस यात्रा में उसी करार को आगे बढ़ाने की मंशा थी, जिसे काफी हद तक पूरा किया गया। फ्रांस से भारत के रिश्ते सदा से अच्छे रहे हैं। उस दौर में भी, जब अमेरिका समेत सारा पश्चिम हमारे खिलाफ था।
बढ़ा सहयोग-
भारत-फ्रांस के बीच परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए कुल सात समझौते हुए हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है महाराष्ट्र के जैतपुर में परमाणु बिजली संयंत्र की फ्रांसीसी सहयोग से स्थापना। फ्रांसीसी कंपनी अरेवा और भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम लिमिटेड के बीच 25 अरब डालर का बुनियादी समझौता हुआ। यह करार सबसे महत्वपूर्ण इसलिए माना जा रहा है कि इससे भारत के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में थमे हुए पहिए फिर रफ्तार पकड़ते नजर आएंगे। अपनी बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए पारंपरिक जैविक ईंधन की जगह नाभिकीय ऊर्जा का इस्तेमाल करने की भारत की कोशिश इस समझौते से पूरी होगी। इन महत्वपूर्ण समझौतों के अतिरिक्त निकोलस सरकोजी ने भारत को आधुनिक रक्षा तकनीक मुहैया कराने की इच्छा जताई। रूस का विमान मिग और फ्रांस का मिराज भारतीय सेना को सशक्त बनाते रहे हैं। सरकोजी ने भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता दिलाने की मंशा जाहिर की। इससे भारत सर्वाधिक उत्साहित हुआ है। फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ मुलाकात में पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पनप रहे आतंकवाद पर भी चिंता जाहिर की। इनके अलावा दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक, शैक्षणिक सहयोग बढ़ाने पर भी चर्चा हुई, जिसका लाभ इस देश के प्रतिभाशाली छात्रों को मिलेगा।
परमाणु सहयोग को महत्व-
फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने साझा संवाददाता सम्मेलन में भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलाने में फ्रांसीसी सहयोग के मुद्दे को सर्वाधिक महत्व दिया, लेकिन व्यवहारतः इस यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा भारत और फ्रांस के बीच दो परमाणु रिएक्टर लगाने का सौदा ही था, जो 9.3 अरब डॉलर का है। परमाणु तकनीक में फ्रांस आगे है और जब सोवियत संघ और अमेरिका या वारसा संधि और नाटो देशों के बीच तनातनी का दौर था, तब फ्रांस शांतिपूर्ण कामों के लिए परमाणु तकनीक बेचने वाला सबसे बड़ा देश बन गया था। इधर भी अमेरिका से परमाणु करार होने और परमाणु दायित्व का मसला सुलझ जाने के बाद से ऐसे सौदों की उम्मीद की जा रही थी। भारत कुल 20 परमाणु संयंत्र लगाकर अपनी ऊर्जा की जरूरतों में आ रही कमी को पूरा करना चाहता है और फ्रांस से जो समझौता हुआ है, यह उसी का हिस्सा है। परमाणु बिजली को हमारी ऊर्जा की जरूरतों का विकल्प माना जा रहा है।