Monday, September 24, 2012

तीसरे मोर्चे की संभावनाएं

सवाल उठ रहे हैं, क्या देश में एक बार फिर तीसरे मोर्चे के गठन की सुगबुगाहट शुरू हो गई है? क्या सरकार की गिरती साख तथा विपक्ष में पड़ती दरार के कारण मुलायम की तीसरे मोर्चे को जिंदा करने की कोशिशें परवान चढ़ेंगी? यहां यह भी देखना होगा कि यदि तीसरा मोर्चा अस्तित्व में आता है, तो उसमें कौन-कौन-से दल शामिल होंगे, उनकी विचारधाराओं के बीच किस प्रकार सामंजस्य बैठेगा, फिर उसमें मौजूद क्षेत्रीय दल किस नीति के तहत जनता के पास वोट मांगने जाएंगे? यहां एक सवाल और उठता है कि क्या तीसरे मोर्चे का संभावित गठन राजनीति में चौथे मोर्चे के गठन का भी मार्ग प्रशस्त नहीं करेगा? दरअसल, क्षेत्रीय नेताओं में इतने मतभेद हैं कि उनका एक मंच पर आना असंभव लगता है और यदि वे एक साथ आ भी गए, तो साथ-साथ रहेंगे कितने दिन? बहरहाल, मुलायम सिंह यादव इन दिनों जो राजनीति कर रहे हैं, उससे साफ है कि वे जल्द से जल्द आम चुनाव चाहते हैं। भाजपा तो इसी प्रयास के तहत हमलावर की मुद्रा में है। प्रस्तुत है देश में मध्यावधि चुनाव और तीसरे मोर्चे की संभावनाओं पर रिपोर्ट मुलायम सिंह ने रचा ताना-बाना अगला लोकसभा चुनाव भले ही दूर हो, लेकिन 2014 से बड़ी उम्मीद लगाए सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने संभावित 'तीसरा मोर्चा' का ताना-बाना अभी से बुनना शुरू कर दिया है। दिलचस्प पहलू यह भी है कि मुलायम की इस रणनीति से कांग्रेस भी असहज नहीं महसूस कर रही है। कुछ माह पहले तक देश में मध्यावधि चुनाव की संभावना जताने वाली सपा अब 2014 में ही चुनाव मानकर चल रही है। ऐसे में उसे तीसरे मोर्चे की जमीन तैयार करने के लिए यह मौका सबसे मुफीद लग रहा है। एक तरफ वह 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में अभी से अपने प्रत्याशी तय कर रही है तो दूसरी तरफ समान विचारधारा वाले दलों की एकजुटता के जरिए केंद्रीय राजनीति में अपनी अहमियत भी साबित कर रही है। रणनीति के आधार स्तंभ मुलायम सिंह की रणनीति क्षेत्रीय दलों पर टिकी है। उन्हें लगता है कि आगामी लोकसभा चुनावों में संसद में बहुमत चूंकि किसी के पास नहीं होगा इसलिये ज्यादा सांसदों वाले दलों की भूमिका प्रभावी हो जाएगी। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने उनमें उत्साह का संचार किया है। देश के इस सबसे बड़े राज्य में लोकसभा की 80 सीटें हैं। मुलायम महसूस कर रहे हैं कि जरूरत पड़ने पर वामपंथी दलों की मदद भी ली जा सकती है। शुरुआत फिलहाल, कोयला ब्लॉक आवंटन में गड़बड़ी के खिलाफ समान सोच वाले दलों की एकजुटता से हुई है,लेकिन यह यहीं नहीं रुकेगा। दिलचस्प पहलू यह भी है कि मुलायम की इस रणनीति से कांग्रेस भी असहज नहीं महसूस कर रही है। वामदलों, गैर कांग्रेस व गैर भाजपा कुछ दलों को सपा के साथ विश्वास का संकट हो सकता है, फिर भी मुद्दों के आधार पर वे मौजूदा दोस्ती को जरूरी मान रहे हैं। इन दलों की उसी सोच का नतीजा है कि सपा, माकपा, भाकपा, तेलगू देशम पार्टी ने बैठक करके कोयला ब्लॉक आवंटन में गड़बड़ी की न्यायिक जांच और संसद का गतिरोध दूर करने के लिए हाथ मिला लिया। खास बात यह है कि दोस्ती का यह सिलसिला आगे भी जारी रखने पर ये दल राजी हो गए हैं, जबकि, दूसरे दलों को जोड़ने की भी संभावनाएं तलाशी जाने लगी हैं। यह पूछने पर कि इस नए गठजोड़ की आगे की रणनीति क्या है? मुलायम से कहा, 'यह शुरुआत है। अब हम आगे भी बैठकें करके रणनीति बनाते रहेंगे'। वामपंथीः सरकार में रहकर भी विपक्षी तीसरा मोर्चा पिछले तीन दशक में कई बार चर्चा में आया, सत्ता में भी आया और विलुप्त हो गया। केंद्र की सरकार ने वामपंथियों के शामिल होने का देश भारी नुकसान उठा रहा है। वामपंथियों की टोली सरकार में रहकर ही विपक्ष की भाषा बोलती है और मनमाफिक निर्णय न होने से तीसरे मोर्चे की बात उछालने लगती है। देश में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव के कारण पूर्णबहुमत की सरकारों का गठन मुश्किल होता जा रहा है। अब तो यह लगने लगा है कि जब तीसरे मोर्चे का शोर सुनाई दे तो समझिए कि कोई सरकार अपने को परेशानी में समझकर अपनी सीमाएं सुरक्षित करने की कोशिश कर रही है। सब जानते हैं कि देश के राजनीतिक समीकरण ऐसे हैं कि कोई भी राजनीतिक दल केंद्र सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में नहीं पड़ सकता। वामपंथी चाहे जितना चिल्लाएं। वे जानते हैं कि कांग्रेस को अस्थिर करने का मतलब देश में भारतीय जनता पार्टी या प्रदेशों में शिवसेना जैसी सरकारों का मार्ग प्रशस्त करना है। जो लोग तीसरे मोर्चे के लिए बहुत उतावले हैं खुद उन्हें भविष्य में अपने बहुमत का पता नहीं है। कोई उनसे पूछे कि क्या वे स्वयं अपनी सरकारों का कार्यकाल पूरा कर सके? मोर्चे की बात तो बहुत दूर की है। तीसरे मोर्चे की पहल अभी तो सारे वामपंथी नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इस पहल में छीछालेदर के अलावा कोई दम नहीं है। बड़ा सवाल, कौन करेगा नेतृत्व भारतीय राजनीति का इतिहास रहा है जिसमें सत्ता हमेशा ही विचारधारा पर भारी पड़ती है। तीसरा मोर्चा बनाना कोई कठिन काम नहीं है लेकिन वह तब तक धरातल पर नहीं उतर सकता जब तक कि दलों की एक राय ना बने। बेशक, कुछ क्षेत्रीय दलों ने चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया है। साथ ही जनता का जनादेश भी उन्हें मिला है। अब सवाल यह है की विधानसभा चुनावों का प्रदर्शन लोकसभा चुनावों में दोहराना कैसे मुमकिन होगा। चलिये मान लेते है कि घटा-जोड़ कर कुछ क्षेत्रीय दल एक हो जाते है और हर आम चुनावों की तरह आगामी लोक सभा चुनावों में भी तीसरे या चौथे मोर्चे का गठन कर लेते है। लेकिन फिर वही समस्या सामने पेश आएगी की सत्ता मिलने पर उसकी बागडौर कौन संभाले। सच्चाई तो यह है की तीसरा मोर्चा कभी स्थिर हो ही नहीं सकता, और राजनीति में जो स्थिर नहीं होता, उसे जल्दी ही सत्ता से बेदखल करने में देर नहीं लगती। कई दलों का प्रभुत्व प्रभावशाली नेताओं के हाथ में है लेकिन उनकी प्रासंगिकता तब तक नहीं है जब तक किसी बड़े राजनीतिक दल से उनका गठबंधन न हो। तीसरे मोर्चे का इतिहास इतिहास के पन्नों को उलट कर देखें तो अस्सी के दशक के आसपास लोकदल के चरण सिंह का उत्तर प्रदेश के जाट प्रभुत्व वाले ग्रामीण इलाके में जबर्दस्त सिक्का चलता था। वही दूसरी तरफ भाजपा उत्तर भारत के शहरी इलाकों में धीरे धीरे लोकप्रिय पार्टी बन रही थी। लोकदल और भाजपा का किसी भी प्रकार का चुनावी गठबंधन काँग्रेस (आई) को भारत की हिन्दी बेल्ट में नुकसान पहुंचाने में लगा हुआ था। ममता, पवार और नीतीश भी हो सकते हैं बड़े खिलाड़ी तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी चीफ शरद पवार भी खेल के प्रमुख खिलाड़ी हो सकते हैं। दोनों पुराने कांग्रेसी हैं लेकिन इन्होंने समय रहते जान लिया था कि काँग्रेस से जुड़े रहने से इनकी राजनीतिक हसरते कभी पूरी नहीं होंगी। आगे चलकर राहें तो जुदा हो गयी लेकिन दिल अभी भी काँग्रेस से ही लगा हुआ है। दोनों को लगता है कि तीसरे मोर्चे के फ़ेल होने पर उनके राजनीतिक जीवन का अंत भी हो सकता है इसलिये बेहतर है की जरूरत के हिसाब से अपने को ढाल लिया जाए। अब जब दोनों ने कांग्रेस से दिल लगाकर अपनी छवि केन्द्रीय स्तर की बना ली है तो अब अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास कराते रहते है। उधर जनता दल यूनाईटेड के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए इस समय धर्मनिरपेक्षता से बड़ा कोई मुद्दा ही नहीं बचा है। भाजपा से जुड़कर नीतीश कुमार ने बिहार में अपनी अच्छी पकड़ और दिल्ली तक अपनी पहचान भी बना ली है, लेकिन नीतीश को अच्छी तरह से मालूम है कि भाजपा की राष्ट्रीय स्तर की छवि ही नीतीश को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक ले जाने में मदद कर सकती है। इन पर टिकी होंगी नजरें समाजवादी पार्टीः आगामी लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी यदि 40 से अधिक सीटें लाने में कामयाब होती है, तो सरकार का गठन उनके बिना नहीं होगा और यदि उत्तर प्रदेश के लिहाज से देखें, तो उनकी पार्टी इस वक्त 40 सीटें निकालने की स्थिति में तो है ही। सपा के वोटों का आधार मुस्लिम के साथ ही पिछड़ों का वोट है। प्रदेश में सवर्ण मतों की भूमिका भी अहम हो सकती है। बहुजन समाज पार्टीः उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी अच्छा दम-खम रखती है। विधानसभा में सत्ता से बाहर हुई यह पार्टी इस समय लोकसभा चुनावों की तैयारी में पूरे दम से जुटी है। पार्टी का अपना वोट बैंक हैं, दलितों के साथ यदि मुस्लिम वोट वह खींच लेती है तो तस्वीर का रुख पलट सकता है। बीजू जनता दलः ओडिशा में लोकसभा की 21 सीटें हैं। नवीन पटनायक का बीजू जनता दल हालांकि यहां प्रमुख खिलाड़ी नहीं है लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का घटक दल रहते हुए उसने यहां बड़ी हैसियत हासिल कर ली है। तृणमूल कांग्रेसः पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ यह पार्टी 42 सीटों पर अपना प्रभाव साबित कर सकती है हालांकि वहां के हालात थोड़े उसके प्रतिकूल हुए हैं और वामपंथी गठबंधन का समर्थन बढ़ा है। द्रमुक-अन्नाद्रमुकः तमिलनाडु में प्रभावी दोनों दलों के बीच 39 सीटों पर संघर्ष है। द्रमुक कांग्रेस के खेमे में है और अन्नाद्रमुक तटस्थ। लोकसभा चुनावों के बाद राज्य के चुनावी सूरमा रंग दिखा सकते हैं। शिवसेनाः महाराष्ट्र की प्रमुख राजनीतिक पार्टी शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी दमदार राजनीतिक पार्टियां हैं। भाजपा की करीबी है शिवसेना जबकि राज ठाकरे ने अभी किसी दल से नजदीकी दिखाई नहीं है। महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं। चुनावों के बाद जम्मू-कश्मीर में सत्तासीन नेशनल कांफ्रेंस, महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा पर भी तीसरे मोर्चे के लिए प्रयासरत नेताओं की नजरें जा सकती हैं। सर्वेक्षण- एनडीए आगे, यूपीए पीछे एनडीटीवी ने पहला चुनावी सर्वेक्षण किया है। उसका निष्कर्ष है कि मौजूदा हालात में यदि मध्यावधि चुनाव हो गए तो कांग्रेस को खासा नुकसान होगा और उसकी सीटें 206 से घटकर 127 पर पहुंच जाएंगी। उसके सहयोगियों की सीटें 58 रहने का अनुमान है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सबसे बड़ी ताकत बनकर उभर सकता है। उसकी सीटें 116 से बढ़कर 207 होने का अनुमान है। इसके साथ ही भाजपा के सहयोगियों की संख्या भी दोगुनी हो जाएगी। अन्य पार्टियों की सीट 117 से बढ़कर 151 हो जाएंगी और समाजवादी पार्टी चीफ मुलायम सिंह अपनी सीटें 23 से 33 होने के बाद किंगमेकर की भूमिका निभा सकेंगे। यह सर्वेक्षण चुनाव बाद क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ने का संकेत दे रहा है।

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