Monday, September 24, 2012

जेनरिक दवाइयां

जेनरिक दवाएं क्या हैं, और इनकी कीमत कम क्यों होती है। क्या होती है जेनरिक दवाइयां? जेनरिक दवाइयों के सन्दर्भ में जिनरिक (फार्माकोपियल) शब्द का अर्थ दवा के मूल घटक से है। उस मूल घटक से ही प्रजाति विशेष जो दवाएं तैयार होती हैं उन्हें जेनरिक या प्रजातिगत दवा कहते हैं। उदाहरण के तौर पर बाजार में गेहूँ का जो आटा 15 रुपए किलो बिकता है, उसे हम जेनरिक दवा मान लेते हैं। अब अगर यही आटा कोई आदमी या कम्पनी अपने मार्के के साथ 40 रुपए किलो के हिसाब से बेचे तो उसे कहेंगे एथिकल दवा। कोई भी निर्माता एक उत्पाद को जेनरिक या ब्रान्ड नाम से बेच सकता है। चूकिं ब्रान्ड पर निर्माता का एकाधिकार होता है तथा वह अपने ब्राण्ड को प्रसिद्ध और प्रचार-प्रसार करने के लिए खूब सारा खर्चा करता है। वह बिचौलियों यानी दवा विक्रेताओं, अपने विक्रय प्रतिनिधियों और डॉक्टरों को कमिशन देता है। इस वजह से ब्रान्डिड दवाएं जेनरिक से बहुत मंहगी हो जाती है, हालांकि दोनों की गुणवत्ता समान ही होती है। सरकार का आग्रह जेनरिक पर क्यों? अधिकांश दवाइयों की निर्माण लागत बहुत कम होती है, लेकिन वे विभिन्न कारणों से रोगियों को कम दामों पर नहीं मिल पाती हैं, जैसे- चिकित्सक किसी दवा कम्पनी के ब्रान्ड नाम की दवा लिखते हैं, इससे प्रतिस्पर्धा हतोत्साहित होती है और बाजार में कृत्रिम एकाधिकार की स्थिति बनती है, जिसमें दवा कम्पनी द्वारा अधिकतम खुदरा मूल्य काफी ज्यादा रखा जाता है। एक बार फिर वही उदाहरण कि डॉक्टर आपसे कहे कि गेहूँ का आटा खाओ, तो आप कहीं से भी खरीदकर खा लेंगे, अब अगर वही डॉक्टर आपसे कहे कि नत्थू की चक्की से लेकर गेहूँ का आटा खाओ, तो आपकी मजबूरी है कि जिस भाव नत्थू आटा बेचे उसी भाव खरीदना पड़ेगा। यही वजह है कि सरकार का आग्रह है कि डॉक्टर दवा का जेनरिक नाम लिखें। यानी डॉक्टर गेहूँ का आटा ही लिखें, किसी विशेष चक्की का आटा न लिखें। क्यों मंहगी हैं एथिकल दवा? भारत में अधिकतर दवाइयां 'औषधि मूल्य नियंत्रण' से मुक्त होने के कारण निर्माता अपनी ब्रान्डिड दवाइयों पर अधिकतम खुदरा मूल्य बहुत ज्यादा लिखते हैं। औषधि विक्रेता वही कीमत मरीज से वसूल करता है। उपभोक्ताओं को यह बात मालूम ही नहीं है कि अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत बहुत कम होती है। इसके अलावा यदि चिकित्सक ने किसी ब्रांड विशेष की दवा लिख दी तो फिर मरीज के पास उसे खरीदने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता, भले ही बाजार में वही घटक दवा कम कीमत पर उपलब्ध हो। दूसरी वजह हमारी मानसिकता है। हम यह मान कर चलते हैं कि अगर दोनों प्रकार की दवाओं के मूल्य में इतना अंतर है तो मंहगी दवा में जरूर कोई न कोई विशेषता होगी। दवा निर्माता कम्पनियां इसी भ्रम का फायदा उठाती हैं। उदाहरण के लिए एलर्जी या जुकाम के लिए एक दवा है सिट्रिजिन। कुछ कम्पनियां एलडे या सिटेन के नाम उसकी एक गोली को 5 से 6 रुपए में बेचती हैं, जबकि यही गोली अपने मूल नाम से मात्र 18 से 20 पैसे में उपलब्ध है। क्यों होती है ये दवाइयां सस्ती? किसी भी ब्रान्डिड या मौलिक दवा को बनाने में होने वाले शोध पर विशेष ज्ञान, समय तथा पूंजी लगती है, तब जाकर किसी कंपनी को एक दवा का एकाधिकार (पेटेंट)मिलता है। इन सब खर्चों के बाद कंपनी का मुनाफा और उस दवा को बेचने के लिए डॉक्टरों पर होने वाला खर्च भी कीमतों को बढ़ाता है। दूसरी और जेनरिक दवाइयों पर केवल इनके निर्माण का ही खर्च होता है, इसलिए इनकी कीमत अपेक्षाकृत बहुत ही कम होती है। कुछ अड़चनें भी आईं सन 1990 में जब जेनरिक दवाओं को खुला बाजार मिला तो कई बड़ी ब्रान्डिड कंपनियों ने पेटेंट और कॉपीराइट जैसे मुद्दों को उठाया और इन दवाओं को रोकने के कई प्रयास किए। दूसरे, ब्रान्डिड दवाओं से कुछ डॉक्टरों के कमीशन और कंपनियों के हित सीधे जुड़े होते हैं इसलिए खुदरा विक्रेता के पास मौजूद होने के बावजूद भी डॉक्टर दवा का जेनरिक नाम नहीं लिखते, इसलिए दवा विक्रेताओं ने इन्हें रखना कम कर दिया। कितनी सस्ती कितनी मंहगी? अब जेनरिक दवाइयों की कीमतों में हो रहे बड़े घालमेल पर भी एक नजर डाल लेते हैं। हालांकि मौलिक और जेनरिक दवा की कीमतों में बहुत बड़ा अंतर होता है, पर जेनरिक दवा के थोक और खुदरा मूल्य के बीच का अंतर भी अविश्वनीय है। जेनरिक दवाइयां गुणवत्ता के सभी मापदण्डों में ब्रान्डिड दवाइयों के समान तथा उतनी ही असरकारक होती है। जेनरिक दवाइयों को बाजार में उतारने का लाइसेंस मिलने से पहले गुणवत्ता मानकों की सभी सख्त प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। दवा खरीदते समय यह ध्यान आपको रखना है कि जेनरिक दवा भी किसी नामी और अच्छी कम्पनी की हो, वरना बाजार नकली और घटिया दवाइयों से भरा पड़ा है। सलाह यह दी जाती है कि जेनरिक दवा हमेशा सरकारी दुकानों से ही खरीदें, बाजार में यह दवा आपको सस्ती नहीं मिलेगी। उदाहरण के लिए जेनरिक दवा सिट्रिजिन की 10 गोली का एक पत्ता सरकारी दुकान पर 2 से ढाई रुपए का मिलता है जबकि बाजार में यह 24 से 26 रुपए का मिलेगा।

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